Friday, February 10, 2012

भ्रष्टाचार......आखिर लोग करें, तो करें क्या...?



भ्रष्टाचार में जीते जीते आज हमारी स्थिति ज़हर के कीड़ों की तरह ही हो चुकी है। बड़े वित्तीय घोटालों के नाम कुछ दिनों तक मीडिया में तो आते हैं, फिर अचानक से कहॉ चले जाते हैं ? किसी को पता ही नही चलता। पिछले कुछ दशकों में बोफोर्स घोटाला, पशुपालन घोटाला, हवाला घोटाला, हर्षद मेहता कॉड, चारा घोटाला, केतन पारीख स्कैंडल, बराक मिसाइल डील स्कैंडल, तहलका कॉड, तेलगी, तेल के बदले अनाज घोटाला, ताज कॉरीडोर, कैश फार वोट ,सत्यम, मधु कोड़ा का घोटाला प्रमुख रहे। अब टू जी स्पेकटम घोटाला में ए0 राजा, ज़मीन घोटाले में येदुरप्पा, आदर्श सोसायटी घोटाले में अशोक चव्हाण एंड कंपनी, सूचना लीक करने वाले आई0 ए0 एस0 रवि इंदर समेत हमारे इर्द गिर्द ऐसे ही लोगों का जमावड़ा है, जो समाज के अपराधिक वर्ग को एक नयी दिशा देने में कामयाब हो रहे हैं ? पूर्व के घोटालों में लिप्त लोगों को क्या पर्याप्त सजा मिली, जिसके वह हकदार थे ? वर्तमान में तो ललित मोदी विदेश यात्रा पर हैं। अब यह तो वही बात हुयी कि 10 रू चुराओ तो चोर, 100 करोड़ चुराओ तो सफल व्यवसायी। यही हमारे समाज की विडम्बना है। आज तो स्थिति यह है कि हमारी सेना भी भ्रष्टाचार से अछूती नही है। सुकना भूमि घोटाले में सेना के चार अफसर आरोपित हैं। ये चारो अफसर लेफटिनेंट जनरल स्तर के हैं।

कुछ और गहराई तक जायें, तो हम देखते है कि स्थिति और भी ज्यादा जटिल है। ट्रंासपेरेंसी इंटरनेशनल के अनुसार 50 प्रतिशत भारतीयो को अपना काम कराने के लिए या तो रिश्वत देनी पड़ती है या अपने प्रभाव का इस्तेमाल करना पड़ता है। जनता को सरकार से मिलने वाली 11 बुनियादी सुविधाओं जैसे स्वास्थय, शिक्षा, न्यायपालिका, पुलिस आदि में भ्रष्टाचार से ही 21068 करोड़ का कारोबार है। बिहार राज्य में गरीबों को दी जाने वाली 80 प्रतिशत खाघ सहायता चुरा ली जाती है। भूमाफिया और बिल्डरो का अवैध भूमि अधिग्रहण अब आम बात हो गयी है। इन सबमें कहीं न कहीं सरकारी तंत्र अवश्य लिप्त होता है। इसी क्रम में सरकारी अधिकारियों द्वारा की जाने वाली टेंडर प्रक्रिया हमेशा उनके चहेते और चुनिंदा लोगों को ही फायदा पहुॅचाती दिखती हैं। ट्रंासपेरेंसी इंटरनेशनल के ही अनुसार भ्रष्टतम देशों की सूची में 2001 में भारत 71वें स्थान पर था जो 2010 में बढ़कर 87वॉ हो गया। या यॅू कहें कि हमारा भ्रष्टाचार पिछले 10 सालों में कम होने के बजाय बढ़ा है।

यदि विजिलेंस मामलों के ऑकड़ों की बात करें,तो 2004 में सीबीआई के पास 758 एवं राज्यों में 2585 मामले आये जो 2007 तक बढकर 3178 तक पहुॅच गये। 2005 में 414 लोगों पर विभागीय कार्यवाही का आदेश हुआ, 178 पर कार्यवाही हुयी भी। वहीं 2008 में 736 लोगों पर विभागीय कार्यवाही का आदेश हुआ। 489 पर कार्यवाही हुयी। ये ऑकड़े बताते हैं कि नौकरशाही में भ्रष्टाचार लगातार बढ़ ही रहा है। बड़े घोटालेबाज़ों को बचाने मे नौकरशाही का यह भ्रष्टाचार संजीवनी का कार्य कर रहा हैं। भ्रष्टाचार के साथ सबसे बड़ी विडम्बना यह भी है कि जिन संस्थाओं के द्वारा भ्रष्टाचार की जॉच की जाती है, वह स्वयं भी निष्पक्ष नही है। इनके अधिकारी या तो भ्रष्ट हैं या राजनैतिक प्रभाव में आकर कार्य करने लगते हैं। कुछ दशक पहले लोग सी0आई0डी0 को विश्वसनीय मानते थे। सी0आई0डी0 जॉच में अभियोग के जाने पर एक ‘परसेप्शन’ था कि अब अभियुक्त बख्शे नही जायेंगें। धीरे धीरे राज्य सरकारों का हस्तक्षेप बढ़ा और सी0आई0डी0 की विश्वसनीयता ख़त्म हो गयी। अब सी0 आई0 डी0 सिर्फ टीवी चैनलो पर आ रहे धारावाहिकों में ही विश्वसनीय लगती है, वास्तविकता में नही। जैसे जैसे समय बीता, लोगों द्वारा निष्पक्ष जॉच के लिए सी0बी0आई0 पर भरोसा किया जाने लगा। सी0बी0आई0 पर केंद्र सरकार का प्रभाव रहता है। कई महत्वपूर्ण प्रकरणों में सी0बी0आई0 की कार्यशैली ने उसकी विश्वसनीयता को भी प्रभावित कर दिया है। कुछ ऐसा ही हाल केंद्रिय सर्तकता आयोग का भी है। ये दोनो संस्थाए अक्सर केंद्र सरकार के राजनैतिक प्रभाव में दिखाई देती हैं। मिलता जुलता हाल प्रवर्तन निदेशालय का भी है। लोकतंत्र का यह एक नकारात्मक पक्ष है कि चूॅकि सरकार को समय समय पर जनता के पास जाना होता है, इसलिए नेताओं के पास स्वार्थी लोगों का जमावड़ा बना रहता है। यह स्वार्थी लोग सत्ता के साथ जुड़ते हैं, व्यक्ति विशेष के साथ नही। उनका राजनैतिक दलों से जुड़ाव स्वार्थसिद्वि के लिए होता है। साथ ही साथ जनता में वह लोग भी शामिल हैं, जों पूरी तरह से ईमानदार नही है। निःस्वार्थ राजनीति अब अधिकतर लोग नही करते ? मेरा कहने का तात्पर्य है कि भ्रष्टाचार की जॉच जिन संस्थाओं द्वारा हो; उनको, उनके अधीन रखा जाये, जिन्हे वापस चुनाव में न जाना हो। कम से कम वे अपनी मजबूरियों का रोना तो नही रो सकते। भारतीय संविधान के अनुसार प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति के लिए कार्य करता है। भारत में राष्ट्रपति का पद बहुत गरिमामय है। भ्रष्टाचार की जॉच करने वाली संस्थाओं की जवाबदेही राष्ट्रपति कार्यालय से सम्बद्व होनी चाहिए। 

भारतीय संविधान सभी नागरिको को समानता का अधिकार देता है, किन्तु भ्रष्टाचार हमारा यह अधिकार छीन लेता है। भ्रष्टाचारी इतना पैसा कमा लेता है कि वह सब कुछ खरीदने की स्थिति में आ जाता है। अब चाहे भौतिक सुविधायें हों या व्यवस्था...., पैसा सब खरीद रहा है और ईमानदारी को मुॅह चिढ़ा रहा है। ईमानदार अपना पेट नही भर पाता जबकि, भ्रष्टाचारी दावतों में लिप्त रहता है। भ्रष्टाचार सबसे ज्यादा तब दर्द देता है, जब जरूरत की चीज़े इतनी महॅगी हो जाती हैं कि आम आदमी खरीद ही नही पाता है। एक तरफ माननीयों के घोटाले एवं दूसरी तरफ आम आदमी के लिए खाने के लाले, बस यहीं से एक स्वस्थ मस्तिष्क भी अपराधिक प्रवृति की ओर बढ़ने लगता है। रोज़मर्रा की वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोत्तरी के लिए सरकारी नीतियॉ एवं सरकारी तंत्र भी ज़िम्मेदार है। वायदा कारोबार एक अलग किस्म का भ्रष्टाचार हैं। अपनी जिम्मेदारियों एवं जवाबदहियों से बचते एफ0सी0आई0 जैसे निगमों की संवेदनहीनता एवं अव्यवस्थित वितरण प्रणाली के द्वारा खाघान्नों का बर्बाद होना तो राष्टद्रोह की श्रेणी का अपराध हैं। गरीब देश में खाघान्न की एक बोरी का सड़ना एक आदमी की हत्या करने के बराबर हैं। हजारों टन खाघान्नों को अपनी लापरवाही से खराब करने वाले अफसरों को नरसंहार का अपराधी माना जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने भी खाघान्नों का बर्बादी को संज्ञान में लेते हुये जब केंद्र सरकार को निर्देशित किया कि यदि आप खाघान्नों का सुरक्षित भंडारण नही कर सकते तो बेहतर है कि इन्हे गरीबों में बॅटवा दें। तब कृषि मंत्री शरद पवार द्वारा 11,700 टन खाघान्न के सड़ने की जानकारी लोकसभा में दी गयी। वह 2004 से लगातार कृषि मंत्री हैं     उन्होने अनाज के भ्ंाडारण के लिए क्यों कदम नही उठाये ? इस देश में यदि विशिष्ट व्यक्तियों के लिए रातों रात हैलीपैड, सड़के एवं अन्य जरूरी सामान निर्मित हो सकता है तो अनाज के भंडारण के लिए तो 6 साल एक बड़ा समय होता है। जो सेना कामनवेल्थ के लिए तीन दिन में पुल बना सकती है उसे यदि सरकार आदेशित करे तो क्या वह भ्ंाडारण के लिए गोदाम नही बना सकती ? क्या यह भ्रष्ट$आचार नही है ? कामनवेल्थ को बेटी की शादी मानने वाले लोगों को अब समझना चाहिए कि बेटी तो शादी करके अपने घर चली गयी है। घर वाले, जिन्हे यहॉ ही रहना है, वे या तो भूखे मर रहे हैं और जो कुछ खा रहे हैं। वे खा के मर रहे हैं। अधिकतर चीजें मिलावटी हैं। जब जब सरकारी तंत्र जागरूक होता है व्यवस्था के छिद्र भरते प्रतीत होते हैं। जैसे उ0 प्र0 में दूधियों के द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाला आक्सीटोसिन इंजेक्शन एवं हानिकारक रसायनो के द्वारा पके फलों के विरूद्व अभियान चलाया गया और लोगों में एक अच्छा संदेश गया। विकासशील से विकसित होते देश में महॅगाईं को कम करना संभव ही नही होता, किन्तु उपलब्घ वस्तुओं की बर्बादी रोककर काफी हद तक नियंत्रण तो हो ही सकता है। भारत में न तो संसाधनों की कमी है और न ही उनका गलत इस्तेमाल करने वाले भ्रष्टाचारियों की। महाशक्ति बनने की राह में रोड़ा ऐसे लोग ही लगाते हैं। जिस तरह महॅगाई एवं अनाज के सड़ने का मुद्दा मीडिया ने प्रचारित किया है वैसे ही भ्रष्टाचार के खिलाफ मीडिया के आवाहन ही ज्यादा कारगर एवं मारक साबित होंगें ?

अभी दिल्ली में इमारत गिरी। बहुत लोग मारे गये। यदि दिल्ली में गिरी इमारत एवं कामनवेल्थ गेम्स के भ्रष्टाचार को देखे तो आयोजन समिति, केंद्र एवं राज्य में यदि कांग्रेस की सरकार है तो एम0सी0डी0 पर बीजेपी का वर्चस्व है। इसलिए इन मुद्दो को राजनीति से उपर उठकर भी देखना होगा। कामनवेल्थ गेम्स की अंर्तराष्ट्रिय मान्यता इतनी नही होती कि कोई भी मेजबान देश अपना सर्वस्व झोंक दे। किन्तु हमारे यहॉ तो सबने हाथ साफ किया। कामनवेल्थ गेम्स को बहुत ज्यादा बढा चढा कर पेश करने वाले लोग, सिर्फ देश के कॉमन मैन की वेल्थ को लूटने में लगे रहे। कामनवेल्थ के द्वारा भारत भी कोई सुपरपावर बनने नही जा रहा था, किन्तु सारे लुटेरे इसका महिमामंडन नही करेंगें तो क्या करेंगें।  भ्रष्टाचारियों द्वारा देश में जो लूट मची है, ऐसी लूटपाट करने वाले अंग्रेंजों से तो हमने 1947 में मुक्ति पा ली थी पर अपने खुद के जयचंदों का क्या करें ? गॉधी जी भी अंग्रेजों के इन्ही कर्मो से त्रस्त थे। भ्रष्टाचारियों द्वारा अपने सामने लूटी जा रही अपनी ही दौलत को देखकर 1909 में रचित महात्मा गॉधी की पुस्तक हिन्द स्वराज  की बातें आज 2010 में भी प्रासंगिक लगती हैं। ......हिन्द स्वराज में गॉधी जी कहते हैं कि अंगें्रजी सभ्यता बिगाड़ पैदा करने वाली है। यह व्यक्ति को व्यक्ति से दूर कर रही है। इसके मोहपाश में जकड़े लोग इसकी कमियों को चाहकर भी स्वीकार नही कर पाते। वह सिर्फ दलीलों के माध्यम से स्वयं को सही साबित करने में लगे रहते हैं। तकनीकी आधार पर तो उनकी सभ्यता काफी आगे बढी है, किन्तु धर्म एवं नीति के मापदंडो पर यह खरी नही उतरती। हमें सिर्फ धीरज धर कर बैठना है, इस सभ्यता की चपेट में आये लोग स्वयं अपनी लगायी हुयी आग में जल मरेंगें। हिन्दुस्तान की परिस्थितियॅा एवं दशा ऐसी है, कि यहॉ लोग स्वधर्म से दूर होते जा रहे हैं। धर्म के पाखंड एवं धार्मिक ठग धर्म पर हावी हैं। अनावश्यक वहम की शांति ने हमें नामर्द, नपुंसक, एवं डरपोक बना दिया है। मैकाले ने भी भारतीयों को नामर्द माना है, जबकि हमारे पहाड़ी लोग बाघ भेड़ियों के बीच बेखौफ रहते हैं। अंग्रेज़ तो वहॉ सोने में भी आनाकानी करेंगें। बल निर्भयता में है, शारीरिक पुष्टता में नही............! किन्तु शिक्षित वर्ग के लोगों के बल का प्रयोग भी सार्थक दिशा में नही हो पा रहा है। वह अपने नैतिक कर्त्तव्यों से विमुख है। भारतीय सभ्यता क्षय रोग से पीड़ित है, जिसमे रोग बाहर से दिखाई नही देता, सिर्फ अदृश्य रहकर सब कुछ नष्ट कर देता है। डाक्टरों, वकीलों ने भारत को कंगाल बना दिया है। डाक्टर सेवाभाव नही रखते। सिर्फ आबरूदार दिखने एवं पैसा कमाने की इच्छा के कारण वह डाक्टर बने हैं। अधिकतर आडम्बर एवं भलाई दिखाकर ठगने वाले ठग हैं। उनकी दवाइयों में चरबी या दारू होती है, जो हिन्दू मुसलमान दोनो के धर्मभ्रष्ट करती है। वे सिर्फ प्रयोगांे के नाम पर लाखों जीवों को प्रतिवर्ष मार देते हैं। वे कुदरत के कामों में अनावश्यक दखल दे रहे हैं। वैघ/हकीम की पद्वति प्रकृति के ज्यादा करीब है।.......वकीलों ने हिन्दु मुसलमानो के झगड़े बढवाये एवं अंग्रेजी हुकूमत को मज़बूत किया। स्व0 मनमोहन घोष जैसे अपवादों को छोड़कर वकील अनीति के पथ पर ही चल रहे हैं। वह तटस्थ रहकर अपने मुवक्किल का पक्ष रखने के बजाय झगड़े पैदा करवाने एवं पैसा पैदा करने में ही लगे रहते है। उनके दलाल जोंक की तरह लोगों का खून चूसते हैं और लोगों पर रौब तो ऐसा गांठते हैं, जैसे सच्चे देवदूत वे ही हैं। अंग्रेंजी अदालतों के लिए गॉधी जी कहते हैे कि यें सत्ता संभालने की मुख्य कुंजी हैं, और अदालतों की कुॅजी वकील हैं। यदि यह पेशा वेश्या जितना नीच माना जाये, तो यह अंग्रेजी राज एक दिन में टूट जायेगा। यही हालत जजों की भी है, दोनो मौसेरे भाई हैं। ‘जब लोग रिश्तेदारों को ही पंच बनाकर झगड़े निपटा लेते थे, तब वे ज्यादा बहादुर थे, न कि अब......? 

अब यदि वर्तमान में न्यायपालिका के भ्रष्टाचार को देखें तो यह सबसे ज्यादा विचलित करने वाला है। अभी कुछ समय पहले तक कर्नाटक हाईकोर्ट के जस्टिस दिनकरन पर महाभियोग चर्चा में रहा। वहीं हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने पूरी इलाहाबाद हाईकोर्ट को ही कटघरे में खड़ा कर दिया। जस्टिस मार्कण्डेय काटजू एवं ज्ञान सुधा मिश्रा की खंडपीठ नें जजों के सगे संबंधियों की वकालत पर सवाल खड़ा किया है ? जजों के सगे संबंधियों द्वारा कुछ ही समय में करोड़पति बनना भ्रष्टाचार का चरम है ? किसी भी परिपाटी को कोसना जितना आसान होता है, उसको बदलना उतना ही मुश्किल होता है ? किंतु अपने घर में सुधार तो स्वयं घर के मालिक के हाथ में है। इलाहाबाद हाईकोर्ट का इतिहास गरिमामयी रहा है। अब ये लोगों को तय करना है कि आपको इतिहास से ही खुश होना है या वर्तमान को भी गौरवमयी इतिहास में बदलना है। यदि वास्तव में हम भ्रष्टाचार से मुक्ति चाहते हैं तो हमें अपने देश में चल रही पुरानी, गलत परिपाटियों को भी बदलना होगा, जो अंजाने मे ही हमारी उदासीनता एवं भ्रष्टाचार का प्रतीेक बनी हुयी हैं। उद्वारण के लिए, व्हीलर्स के नाम से हर रेलवे स्टेशन पर बुक स्टाल है। यह वह व्हीलर हैं जिसने कानपुर के पास हजारों का नरसंहार करवाया था। इसी प्रकार ऐसे अनेक न्यायाधीश हैं जिनके चित्र हमारे न्यायालयों को सुशोभित कर रहे हैं। कुछ नाम याद आ रहे हैं। जैसे जस्टिस डाबर जिन्होने लोकमान्य तिलक को 6 वर्ष के कारावास की सजा़ सुनायी थी। तिलक ने केसरी नामक पत्र में अंग्रेंजों के विरूद्व लेख लिखा था जिसमें उन्होने बंगााल के विस्फोट एवं वहॉ के लोगों का समर्थन किया था। इसी प्रकार महात्मा गॉधी 1923 तक बैरिस्टर मोहनदास करमचंद्र गॉधी के नाम से जाने जाते थें। अंग्रेजी साम्राज्य के विरूद्व उनके अभियान को नियंत्रित करने के लिए उनके वकालत करने को प्रतिबंधित कर दिया गया। उनका नाम बैरिस्टर सूची से हटा दिया गया। इस कार्य को अंजाम दिया था जज मेक्लोड एवं जस्टिस मुल्ला ने। अनजाने में ही सही आज भी जस्टिस डाबर, जज मेक्लोड एवं जस्टिस मुल्ला के चित्र मंुबई हाईकोर्ट को सुशोभित कर रहे है। ऐसे अनेको उद्वारण हैं जो गुलामी एवं दासता के प्रतीक रहें हैं और हम उन्हे आज भी सम्मान दे रहे हैं। 

वास्तव में स्वयं से ईमानदारी आवश्यक है, सिर्फ ईमानदारी का आवरण नही। उच्च एवं अति उच्च शिक्षित होना व्यक्ति का चारित्रिक विश्लेषण नही करता। व्यक्ति की वास्तविक सफलता एवं व्यक्तित्व का मापदंड उसके नैतिक मूल्य होने चाहिए: शिक्षा, पद या धन का होना नही....? यह तो सिर्फ स्वार्थहित के लिए मापदंड बना दिये गये हैं। उच्च शिक्षित, उच्च पद पर प्रतिष्ठित एवं धनवान भी संवेदनशून्य हो सकता है एवं तीनो से रहित व्यक्ति भी संवेदनशील हो सकता है। भ्रष्टाचार में कमी के लिए संवेदनशीलता महत्वपूर्ण है, अन्य तत्व नही। इसी प्रकार राष्ट्रवाद की भावना में कमी, भ्रष्टाचार को शिष्टाचार की श्रेणी में ला देती है। अमेरिका, रूस, चीन, जापान जैसे अग्रणी देशों में एक विशेष समानता है कि वह स्वभाषा को बहुत महत्व देते हैं। पर हम... 14 सित0 के अतिरिक्त हिंदी को सम्मान नही दे पाते हैं। यह भी एक बड़ा कारण है हमारे यहॉ राष्ट्रवाद की भावना बाकी सब ...वादों से पीछे रह जाती हैं। 

चुनाव सुधार: लाचार है...चुनाव आयोग..?





प्रियो भवति  दानेन प्रियवादेन चापरः
मंत्रमूलबलेनान्योयः प्रियः प्रिय एवं सः          विदुरनीति अध्याय 7
                                 इस विश्व में कोई व्यक्ति दान देने से, कोई मधुर बोलने से, कोई यंत्र एवं औषध से प्रिय 
                                होता है। किन्तु जो वास्तव में अच्छा एवं अनुकरणीय है, वह तो आजीवन स्वयं ही प्रिय 
                                 रहता है।

भारत विश्व का वह लोक तंत्र है जहाँ चुनाव वन डे क्रिकेट की तरह हर वर्ष होते हैं चुनावों का मौसम आते ही चुनाव आयोग की सरगर्मी तो  बढ़ जाती है! किंतु चुनाव ख़तम होने के बाद चुनाव सुधारों की बातें ठंडे बस्ते मे चली जाती हैं ये दुर्भाग्यपूर्ण है ?  चुनाव आयोग का नाम आते ही अनुकरणीय व्यक्तित्व टी0 एन0 शेषन का नाम ज़हन में घूमने लगता है, जिन्होने एक बेबस और लाचार संवैधानिक संस्था को शक्तियों के ताजे झोकें का आभास करा दिया। चुनाव आयोग एक संवैधानिक एवं स्वायत्त संस्था है, जिसका कार्य चुनावों कों ठीक ढंग से आयोजित करना होता है। यघ्पि, चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था  है जो संविधान के प्रावधानों के अनुसार कार्य करती है किंतु संविधान के प्रावधानों में सुधार संसद के हाथ में है। सांसद और विधायक चुनाव सुधारों के पक्षधर नही हो सकते । यह कदम उनको आत्मघाती लगता है। चुनावों की घोषणा होते ही कालाधन आना शुरू हो जाता हैं। चुनाव आयोग की कालेधन पर सख्ती दिखाई भी दे रही है। गाजियाबाद में 12 करोड, प्रबुद्व नगर से 80 लाख, शाहूजी महाराज नगर से 30 लाख, सहारनपुर से 25 लाख, फैजाबाद से 81 लाख, लखनउ से 10 किग्रा चॉदी की बरामदगी सिर्फ आयोग की सक्रियता का ही एक उद्वारण नही है, बल्कि काले धन के समानांतर साम्राज्य को भी दिखाता है। धन और बल के माध्यम से चुनावो को जीतने का इतिहास पुराना रहा है। बल पर नियंत्रण करने मे तो चुनाव आयोग कामयाब रहा है किंतु धन पर नियंत्रण के लिए उसे बहुत मेहनत करनी पड रही है। वास्तव में चुनाव सुधार एवं कालाधन एक दूसरे के पूरक मुददे हैं। कालेधन को नियंत्रित किये बगैर चुनाव सुधार संभव नही है। चुनावी खर्च की जो सीमा चुनाव आयोग ने तय की है उसका व्यवहारिकता में पालन नही हो पाता है। यह एक बडी़ महत्वपूर्ण वजह है कि कालाधन पिछले रास्ते से आता रहता है। बड़े कार्पोरेट घराने पार्टियों को फंडिग करते हैं। जो संवैधानिक तो है पर अलगे किस्म के कालेधन का एक स्रोत है। पार्टी फंडिग पर रोक लगाकर यह धन चुनाव आयोग को मिलना चाहिए एवं इसका आवंटन चुनाव आयोग द्वारा पार्टियों को होना चाहिए। जब ऐसा होने लगेगा तब चुनाव आयोग का दवाब राजनैतिक दलों पर होगा। अभी स्थिति यह है कि कानून मंत्री सलमान खुर्शीद अल्पसंख्यक आरक्षण संबंधी बयान देते हैं। चुनाव आयोग उनको नोटिस देता है। मंत्री जी नोटिस का मखौल बना देते हैं। स्थिति इतनी जटिल हो जाती है कि प्रधानमंत्री को बीच बचाव करते हुये चुनाव आयोग को आश्वस्त करना पड़ता है। इसी प्रकार मूर्तियों को ढॅकने का प्रकरण हास्यास्पद हैं। यदि चुनाव आयोग के पास चुनाव पूर्व शक्तियॉ होतीं तो वह निर्माण के दौरान ही मूर्तियों की नीयत पर सवाल उठा सकता था। किंतु तब वह स्वयं भी सफेद हाथी था। इसी प्रकार ई0वी0एम0 को भी पूर्णतः सुरक्षित नही माना जा सकता है। ब्लूटूथ एवं चिप की जानकारी द्वारा इसमे छेड़छाड़ संभव है। दिल्ली हाईकोर्ट ने भी 17 जन0 2012 को एक फैसले में यह तथ्य स्वीकार किया है। तकनीक का फायदा तो होता है किंतु तकनीक का दुरूपयोग पहले होता है। जितने होशियार व्यक्ति व्यवस्था में हैं उससे ज्यादा होशियार बाहर बैठे हैं।

टीम अन्ना एवं ऐसे अन्य सभी समाजसेवी संगठनों से उम्मीद है कि उनका चुनाव सुधार संबंधी अभियान देशहित मे शीघ्र होगा। लोकपाल भले ही पारित ना हो  पाया हो किंतु भ्रश्टाचार तो मुददा बन चुका है। खुद को भ्रश्टाचार मुक्त दिखाने के लिए पहले बीएसपी ने बाबूसिंह कुशवाहा को बाहर किया फिर यह हडडी बीजेपी के गले की फॉस बनी। कांग्रेस स्वकथित तौर पर बाबूसिंह कुशवाहा के कांग्रेस में न आने की बात कह चुकी है। अखिलेश यादव ने डीपी यादव को पार्टी में नही आने दिया। अब यह बात साफ है कि जाति आधारित राजनीति तो सब कर रहें हैं किंतु नैपथ्य में भ्रश्टाचार भी एक मुददा बना हुआ है। कालाधन एवं चुनाव सुधार के लिए लोग प्रतिक्षा में हैं। चुनााव सुधार के लिए अब संवैधानिक प्रावधानों को समझते हैं। संविधान का अनु0 324 चुनावों के दौरान आचार संहिता के माध्यम से चुनाव आयोग को स्थितियों को ‘‘नियंत्रित एवं निर्देशित’’ करने का अधिकार देता है। स्थितियों को ‘‘परिवर्तित’’ करने का अधिकार उसके पास नही है। चुनाव सुधार या चुनाव संबंधी उपबंधों में परिवर्तन का अधिकार अनु0 327 में संसद एवं अनु0 328 में राज्य सरकारों की विधायिका के पास होता हैं। चुनाव आयोग में एक मुख्य चुनाव आयुक्त एवं दो चुनाव आयुक्त होते हैं । माननीय सुप्रीम कोर्ट ने टी0एन0 शेषन बनाम यूनियन आफ इंडिया, 1995 के वाद में मुख्य चुनाव आयुक्त के अधिकारों का विकेंदिकरण करते हुये अन्य दो चुनाव आयुक्तों को भी लगभग समान अधिकार देने का निर्देश दिया था। चुनाव आयोग यदि कभी मनमानी करता है तो सुप्रीम कोर्ट उसे नियंत्रित भी कर देता है। चुनाव आयोग की मनमानी को रोकने का एक फैसला याद आ रहा है। ए0सी0 जोस बनाम सिवम पिल्लई, 1984 के वाद में चुनाव आयोग ने मतदान में मनमानी की थी। 34 बूथों पर पारंपरिक तरीके से एवं 50 बूथों पर इलेक्टानिक माध्यम से गिनती करवायी थी। सुप्रीम कोर्ट ने इसे संवैधानिक मानते हुये आयोग को निर्देशित किया था कि एक ही मतदान में दो तरह के मापदंड असंवैधानिक हैं। चुनाव आयोग को अनु0 327 के प्रावधानो का सम्मान करना चाहिए। अनु0 324 को संज्ञान में लेते समय संविधान के अन्य उपबंधों को, खासतौर पर केद्रिय सूची, राज्य सूची एवं संबंधित अन्य अनूसूचियों को भी संज्ञान में रखना चाहिए।

देश इस समय संक्रमण के दौर से गुजर रहा हैं। आने वाले 5 साल देश में राजनैतिक और सामाजिक उथलपुथल होती रहेगी। आने वाला समय देश के लिए महत्वपूर्ण होने वाला हैं। अब जैसे मैने प्रारंभ में विदुर नीति से बात शुरू की थी, उसी क्रम में टी0 एन0 शेषन,  किरन बेदी आदि, जैसी शख्सियतों के लिए सर सम्मान में झुक जाता है। यह लोग व्यवस्था मे व्यवस्थित नही हुये बल्कि अपनी छाप छोड़ गयें। यदि सब अपने अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते चलें तो स्थिति बद से बदतर होने से बच जायेगी। जो कुछ नही करता सिर्फ वही आलसी नही है आलसी वह भी है जो और बेहतर करने का प्रयास ही नही करता....??