Saturday, March 24, 2012

वर्षा जल से खिलवाड़...आखिर कब तक...?

धरा वारि ने जल दुर्दशा का ये दुर्दिन है क्यों देखा
ये मानव के कर्मो का फल है न है नियति का लेखा

जल ही जीवन है। अगला विश्वयुद्व पानी के लिए होगा। जैसे जुमले पढ़ते पढ़ते हम उब चुके है। अब जल से संबंधित सामान्य ज्ञान दिखाने का समय निकल चुका है। कुछ जरूरी जानकारी इकठठा कीजिए एवं अपने पक्ष की कार्यवाही कर दीजिए। साहित्यकारों को भी जल प्रबंधन एवं जल संरक्षण पर जागरूक योगदान देना होगा। लेखनी की जागरूकता के द्वारा संवेदनशीलता फैलानी होगी और प्रयास करना होगा कि जल प्रबंधन एवं जल संरक्षण सिर्फ लिखने के अच्छे विषय मात्र नही है। भारत में जल का मात्र 15 प्रतिशत ही उपयोग होता है शेष जल बहकर व्यर्थ चला जाता है। 25 मिमी से कम बारिश वाला इजराइल जल की एक भी बूॅद व्यर्थ नही बहने देता है। भारतीय संविधान की धारा 51.एच में वर्णित मौलिक कत्तर्व्यों में भारतीय नागरिकों से यह अपेक्षा की गयी है कि वे वैज्ञानिक मिजाज और खोज.पड़ताल की भावना का विकास करेंगे! सवाल यह है कि क्या हमारे शासक भारतीय नागरिक नहीं है! अगर हैं तो क्या धारा 51.एच उन पर लागू नहीं होतीघ् सच तो यह है कि शासक होने के नाते उनसे तो संविधान की भावना के अनुरूप चलने की अपेक्षा आम नागरिकों से भी ज्यादा है?  फ़िर संविधान की यह धारा भी कहती है कि यह कत्तर्व्य केवल नागरिकों तक सीमित नहीं हैं बल्कि राज्य को भी इनका पालन करना है लेकिन क्या ऐसा हो रहा है!पिछले कुछ सालों के दौरान जिस तरह से कुछ राज्य सरकारों ने जल प्रबंधन व संरक्षण के वैज्ञानिक तरीकों को दरकिनार कर जल देवता वरूण का प्रसन्न करने के लिए धार्मिक अनुष्ठानों का सहारा लिया उससे तो उनकी जचाबदेही सवाल का जवाब नकारात्मक ही मिलता है रूठे मानसून को मनाने के लिए मध्यप्रदेश सरकारसें द्वारा प्रदेश के विभिन्न स्थानों पर सोम यज्ञों का आयोजन काफ़ी चर्चा में रहा है इसके लिए महाराष्ट्र के शोलापुर स्थित श्री योगीराज वेद विज्ञान आश्रम की मदद ली गयी इन आयोजनों के लिए के तहत लाखों रुपये की वित्तीय सहायता भी प्रदान की इन सोम यज्ञों का नतीजा क्या निकलाघ् आश्रम ने दावा किया कि पिछले कई वर्षो से सूखे का सामना कर रहे मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में 2008 में हुई बारिश इन्हीं सोम यज्ञों का परिणाम थीण् यह तो एक तथ्य है कि उस साल बुंदेलखंड में अच्छी बारिश हुई थीए लेकिन अगर यह केवल सोम यज्ञों का ही नतीजा होती तो कम से कम उन सभी स्थलों पर तो सामान्य या सामान्य से बेहतर बारिश होनी चाहिए थीए जहां ये संपन्न करवाये गये थेलेकिन भोपाल स्थित क्षेत्रीय मौसम केंद्र के आंकड़े बताते हैं कि जिन दस स्थलों पर सोम यज्ञों का आयोजन किया गया उनमें से सात में बारिश सामान्य तो क्या सामान्य से भी कम हुई! इससे यही साफ़ होता है कि बारिश का यज्ञों से कोई लेना.देना नहीं है!  अगर बुंदेलखंड में अच्छी बारिश हुई तो यह एक सुखद संयोग ही था!  वैसा ही जैसा कि देश के कई क्षेत्रों में होता आया है! यदि सोम यज्ञ इतने ही कारगर होते तो बुंदेलखंड के लिए विशेष पैकेज और विशेष दर्जे की जरूरत क्या थीं क्यों न इस क्षेत्र के विभिन्न स्थलों पर सोम यज्ञ करवाकर ही बारिश बुलवा ली जाती! बारिश की कमी की वजह से ही यह क्षेत्र लगातार पिछड़ता गया है और इसलिए इसके पिछड़ेपन को दूर करने के लिए हाल ही में केंद्र ने 7277 करोड़ रुपये के विशेष पैकेज को मंजूरी दी हैण् ऐसा भी नहीं है कि वरूण देवता को मनाने की धार्मिक कवायदें सिर्फ़ मध्य प्रदेश की सरकार ने ही की होण् आंध्रप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वाइएस राजशेखर रेड्डी ने पिछले साल ;2009 मेंद्ध 2 से 4 जुलाई के बीच सरकारी खर्च पर तीन दिवसीय ष्वरूण यज्ञमष् का आयोजन करवाया था!  इसका उद्देश्य प्रदेश में अच्छी बारिश के लिए भगवान वेंकटेश्वर को प्रसन्न करना था!  वैश्विवक तापमान में बढ़ोतरी के साथ पिछले कुछ दशकों के दौरान बारिश के पैटर्न में भारी बदलाव आया है! ऐसा नही है कि औसत बारिश में कोई विशेष गिरावट आयी है! लेकिन वर्षा के दिनों में जरूर कमी हुई है! अब कुछ ही घंटों में मूसलाधार बारिश हो जाती है! जिससे आंकड़ों में तो वर्षा सामान्य नजर आती है! लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है! और इसी वजह से पानी का संकट लगातार गहराता गया है! सवाल यह है कि हमारी सरकारें जलवायु परिवर्तन की इस चुनौती से निपटने के लिए कितनी तैयार हैं! यह एक वृहद समस्या है और इसका समाधान अकेले मध्यप्रदेश या आंध्रप्रदेश सरकारों के बस के बाहर ही होगा यह सही है कि पर्यावरण संरक्षण की दिशा में आज उठाये गये कदम लगभग एक दशक बाद अपना सकारात्मक प्रभाव दिखायेंगे! लेकिन अभी तो शुरुआत करनी ही पड़ेगी! हम सबसे पहले अपनी जीवनशैली बदलें और अधिक से अधिक पेड़ लगाएं! जिससे ईंधन के लिए उनके बीज पत्ते तने काम आयेंगे और हम धरती के अंदर के कार्बन को वहीं रखकर वातावरण को बचा सकेंगे!  अंतरराष्ट्रीय कृषि अनुसंधान कंसलटेटिव ग्रुप के अनुसार वर्ष 2050 तक भारत में सूखे के कारण गेहूं के उत्पादन में 50 प्रतिशत तक की कमी आयेगी! दरअसलए वातावरण में औद्योगिक काल में पहले की तुलना में कार्बन डाइऑक्साइड का संकेंद्रण 30 प्रतिशत ज्यादा हुआ है! इससे गर्मी व असहनीय लू से खड़ी चट्टानों के गिरने की घटनाएं बढ़ेंगी! बहुत ज्यादा ठंडए बहुत ज्यादा गर्मी के कारण तनाव या हाईपोथर्मिया जैसी बीमारियां होंगी और दिल तथा श्वास संबंधी बीमारियों से होनेवाली मौतों की संख्या भी बढ़ेगी! क्रिश्चियन एड नामक संस्था की रिपोर्ट कहती  है कि मौसम के बदलाव के कारण आगामी दिनों में आजीविका के संसाधनों यानी पानी की कमी और फ़सलों की बर्बादी के चलते दुनिया के अनेक भागों में स्थानीय स्तर पर जंग छिड़ने से सन् 2050 तक एक अरब निर्धन लोग अपना घर.बार छोड़ शरणार्थी के रूप में रहने को विवश होंगे! यूएन की  रिपोर्ट के अनुसार 2080 तक 32 अरब लोग पानी की तंगी से और तटीय इलाकों के 60 लाख लोग बाढ़ से जूङोंगेण् कोलंबिया यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिक स्टीफ़न मोर्स के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव मलेरियाए फ्लू ओद बीमारियों के वितरण और संचरण में प्रभाव लाने वाला साबित होगा! पहाड़ों पर ठंड के बावजूद मलेरिया फ़ैलेगा! लेकिन मौसम के पैटर्न में आये बदलावों से स्थानीय स्तर पर निपटा जा सकता हैए बशर्ते कि हमारे कर्णधार सोम यज्ञ या वरूण यज्ञ जैसे बेमतलब के अनुष्ठानों पर समय और पैसा बर्बाद ने करेंण् इसके लिए सरकारों को वैज्ञानिक तरीकों से जल प्रबंधन करना होगाए व्यापक नीतियां बनानी होंगी और उन पर अमल भी करवाना होगा!  कई राज्यों में घरों में रेनवाटर हार्वेस्टिंग को अनिवार्य करने का नियम पारित हो चुका है!  लेकिन इस पर क्रियान्वयन कितना हो पाता है!  सरकार को यदि प्राचीन परंपराओं से इतना ही अनुराग है तो वह जल प्रबंधन के पुराने तरीकों का अनुसरण कर सकती है!  जो विज्ञान सम्मत हैं और कारगर भी साबित होंगे!इसके लिए किसी आश्रम के योगियों के पास जाने की जरूरत भी नहीं होगी! जल प्रबंधन के कार्य में लगे अनुपम मिश्र और राजेंद्र सिंह जैसे योगियों से सीखा जा सकता है कि सदियों पहले लोग कैसे पानी को सहेजकर रखते थे! इस तरह के यज्ञों में सरकार के शामिल होने का सबसे बड़ा खतरा यह है कि आम जनता भी पानी के लिए इसी तरह के यज्ञों व अनुष्ठानों पर और भी ज्यादा भरोसा करने लगती है !सरकार के स्तर पर क्या यह बेहतर नहीं होगा कि जल प्रबंधन के लिए वे ऐसी मिसालें पेश करें और कार्यक्रम चलाएं कि लोग कल के लिए आज से ही पानी को बचाकर चलेंए इतना पानी बचाएं कि कम से कम एक विफ़ल मानसून को हम ङोल सकें! यज्ञों का धार्मिक महत्व एक अलग मुद्दा है लेकिन अच्छा होगा कि इसे व्यक्तिगत आस्था तक ही सीमित रहने दिया जाये और सरकार ऐसे अनुष्ठानों से दूर रहकर जल संरक्षण के जमीनी कार्यो पर ध्यान केंद्रित करे सरकारों का काम जल प्रबंधन की ऐसी दीर्घकालीन नीतियां बनाना होना चाहिए जिनसे आने वाले सालों में न केवल बारिश की कमी बल्कि बारिश के पैटर्न में बदलाव से पैदा होने वाली समस्याओं से कारगर ढंग से निपटा जा सकेण! जल प्रबंधन के पहले कदम के रूप में सार्वजनिक जल वितरण व्यवस्था को दुरूस्त करना सबसे ज्यादा जरूरी है ! जल वितरण के दौरान ही पानी की कितनी बर्बादी होती है!  इसके लिए दिल्ली का उदाहरण काफ़ी होगाण् एक अधिकृत रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली को जितना पानी मिलता हैए उसका कम से कम 40फ़ीसदी हिस्सा रिसाव में बर्बाद हो जाता है अन्य शहरों में स्थिति इससे बेहतर तो शायद होगी लेकिन इस बर्बादी को रोकने के लिए तो कुछ नहीं किया जाता उल्टे दूर बहती नदियों से शहरों में पानी लाने की योजनाओं पर अरबों रुपये खर्च कर दिये जाते हैं और जब नदियां भी सूखने लगती हैं तो भगवान का ही आसरा रह जाता है ! जल प्रबंधन के लिए किसी भी सरकार ने कुछ नहीं किया है  इसलिए हर साल की तरह इस बार भी देश के अनेक शहरो में पानी को लेकर पहले जैसा ही हाहाकार मचेगा।





Wednesday, March 21, 2012

बाल दिवस.. मनाने का एक अंदाज यह भी..!!


14 नवम्बर को हम लोग बाल दिवस के रूप में मनाते  है। यह दिन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री प0 जवाहर लाल नेहरू के जन्म दिन के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। भारत के स्वाधीनता संग्राम में प0 नेहरू का योगदान उल्लेखनीय रहा था। देश की आजादी का प्रतीक रही कांग्रेस की जड़ों को सींचने में प0 नेहरू का भी योगदान था। जब व्यक्ति का वर्तमान अच्छा न हो और भविष्य में आशा की कोई किरण न हो तब वह अपने भूतकाल की उपलब्धियों को गिनाने लगता हैं। 14 नवंबर मनाने का एक पारंपरिक तरीका है कि हम नेहरू जी को याद करें । उनकी कुछ तारीफ करें। बच्चे गुलाब के फूल को चाचा नेहरू का प्रतीक बताते हुये उनकी देशभक्ति का गुणगान करें। फिर दोपहर 12 बजे तक अपने अपने घर जाये। फिर घर जाकर टीवी पर वही कुछ चुनिंदा फिल्मे देखें जो 15 अगस्त, 26 जनवरी, 14 नवंबर के लिए अनुबंधित सी लगती हैं। इस पूरी प्रक्रिया में सिर्फ भूतकाल का गुणगान होता है। मेरा मानना है कि 14 नवंबर हम सबके लिए आत्मचिंतन का दिवस है। यह वह दिन है जब हमें विचार करना चाहिए कि हम अपनी आने वाली पीढियों के लिए क्या छोडकर जायेंगें ? हमारे पूर्वजो ने जो त्याग किये उसने हमे आजाद बनाया किंतु जब तक हम उनकी गलतियों का ऑकलन नही करेंगें ? उनके द्वारा अधूरे छोड़े गये कार्यो को पूरा नही करेंगें। हम देश को आगे नही ले जा पायेंगें।
14 नवम्बर के दिन एक बात और समझना जरूरी है जब तक हम छोटे थे तब बाल दिवस को बड़े मन से मनाया करते थे। जैसे जैसे हम बड़े होते गये, नेहरू जी की नकारात्मक बातें भी हमारे संझान में आती चलीं गयी। 14 अगस्त 1947 की रात 12 बजे भारत आजाद नही हुआ था बल्कि सत्ता का स्थानान्तरण हुआ था।‘टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट’ पर हस्ताक्षर करने वाले महानुभाव थे प0 जवाहर लाल नेहरू। अंग्रेजों की तरफ से लार्ड माउंटबेटन ने हस्ताक्षर किये थे। लार्ड माउंटबेटन की जो सबसे बड़ी खासियत थी वह थी लेडी एडमिना का पति होना। लेडी एडमिना और प0 जवाहर लाल नेहरू की नजदीकियों पर काफी लिखा जा चुका है। उस पर चर्चा की आवश्यकता नही है। आज 14 नवम्बर के दिन हमें आतमचिंतन करना है कुछ ऐतिहासिक भूलों का। ऐसी भूलों का जो जाने अंजाने शहीदों का अपमान कर रहीं हैं। टांसफर आफ पावर एक खतरनाक संधि थी जिसे 1857 की क्रांति से पहले हुयी सभी 565 संधियों से भी ज्यादा खतरनाक माना जा सकता है।

टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट की वजह से ही भारत को दो हिस्सों में बॉटना पड़ा। भारत और पाकिस्तान को डोमेनियन स्टेट का दर्जा दिया गया। डोमेनियन शब्द का उदभव डोमिनेट शब्द से हुआ है जिसका अर्थ है किसी साम्राज्य के आधीन कार्य करना। कॉमनवेल्थ शब्द भी गुलामी और दासता का प्रतीक रहा है। इसी कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए आज की सरकार ने रूपया पानी की तरह बहा दिया। बड़े बड़े घोटाले हो गये। पहले कॉमनवेल्थ के नाम पर अंग्रेज भारत लूट ले गये, अब कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर भारतीय अंग्रेंजों ने देश को कच्चा चबा डाला। कॉमनवेल्थ गेम्स की अंर्तराष्टिय मान्यता बहुत ज्यादा नही होती। यदि भारत को स्वराज मिला होता तो हम कॉमनवेल्थ गेम्स को कराने को बाध्य नही होते किंतु उस समय तो टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट हुआ था। मतलब साफ है कि कॉमनवेल्थ गेम्स को कराना हमारी मजबूरी भी था। कॉमनवेल्थ उन 71 देषों का एक समूह है जो कभी न कभी महारानी का गुलाम रहा हो। महारानी को आज भी इन देशों में आने जाने का वीज़्ाा नही लेना पड़ता है। वह  भारत की नागरिक मानी जाती हैं। इसके विपरीत उनके भारतीय समकक्ष भारत के राष्टपति और प्रधानमंत्री को ब्रिटेन जाने के लिए वीज़ा की आवश्यकता पड़ती है। भारत के राष्टपति और प्रधानमंत्री को नियुक्ति के समय 21 तोपों की सलामी दी जाती है किंतु अगर ब्रिटेन की महारानी भारत आती हैं तो उन्हे भी 21 तोपों की सलामी देना हमारी मजबूरी है। वह आज भी भारत के अप्रत्यक्ष राष्टाघ्यक्ष का दर्जा प्राप्त किये हुये हैं। उन्हे आज भी हाईकमान माना जाता हैं। इसका उद्वारण है कि ब्रिटेन की एम्बेसी को आज भी ब्रिटिश हाईकमीशन कहा जाता है। अमेरिका, जर्मनी, रूस, चीन जैसी अपेक्षाकृत बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के भारत स्थित दूतावासों को हाईकमीशन नही कहा जाता। टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट का ही प्रसाद है कि हम लोग ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ या ब्रिटेन के राजकुमार चार्ल्स कह कर संबोधित नही करते बल्कि महारानी एलिजाबेथ और राजकुमार चार्ल्स कह कर संबोधित करते हैं।

अब इस टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट के कुछ अन्य पक्षों को भी देखते हैं। हमारे राष्टगीत वंदेमातरम को 1997 तक संसद में गाने पर पाबंदी थी। टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट की शर्तो के अनुसार अगले 50 सालों तक यह प्रतिबंधित था। 1997 में चंद्रशेखर के द्वारा यह मुद्दा संसद में उठाया गया। उसके बाद से वंदेमातरम का गायन प्रारम्भ हो सका। एक अन्य उद्वारण है। व्हीलर्स के नाम से हर रेलवे स्टेशन पर बुक स्टाल है। यह वह व्हीलर हैं जिसने कानपुर के पास हजारों का नरसंहार करवाया था। इसी प्रकार ऐसे अनेक न्यायाधीश हैं जिनके चित्र हमारे न्यायालयों को सुशोभित कर रहे हैं। कुछ नाम याद आ रहे हैं। जैसे जस्टिस डाबर जिन्होने लोकमान्य तिलक को 6 वर्ष के कारावास की सजा़ सुनायी थी। तिलक ने केसरी नामक पत्र में अंग्रेंजों के विरूद्व लेख लिखा था जिसमें उन्होने बंगााल के विस्फोट एवं वहॉ के लोगों का समर्थन किया था। इसी प्रकार महात्मा गॉधी 1923 तक बैरिस्टर मोहनदास करमचंद्र गॉधी के नाम से जाने जाते थें। अंग्रेजी साम्राज्य के विरूद्व उनके अभियान को नियंत्रित करने के लिए उनके वकालत करने को प्रतिबंधित कर दिया गया। उनका नाम बैरिस्टर सूची से हटा दिया गया। इस कार्य को अंजाम दिया था जज मेक्लोड एवं जस्टिस मुल्ला ने। अनजाने में ही सही आज भी जस्टिस डाबर, जज मेक्लोड एवं जस्टिस मुल्ला के चित्र मंुबई हाईकोर्ट को सुशोभित कर रहे है। ऐसे अनेको उद्वारण हैं जो गुलामी एवं दासता के प्रतीक रहें हैं और हम उन्हे आज भी टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट की विवशता की वजह से सम्मान देने को विवश हो रहे हैं।

इस संधि की एक ओर विवशता है। यदि भारतीय अदालत में कोई ऐसा मुकदमा आता है जिसके संदर्भ में संविधान या भारतीय कानून में प्रावधान नही है उसके लिए ब्रिटिश कानून का पालन करना होगा। आज देश में 34,735 कानून अपने उसी प्रारूप में चल रहे हैं जैसा अंग्रेज चाहते थे। सुभाष चंद्र बोस इस टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट की वजह से सरकार के गुनहगार रहेंगें । यदि वह जिं़दा या मुर्दा पकड़े जाते हैं तो उन्हे ज़िदा या मुर्दा अंग्रेजो के हवाले करना हमारी जिम्मेदारी होगी। सुभाष चंद्र बोस ने 1942 में आजाद हिंद फौज बनाने में जर्मनी और जापान की मदद ली थी। चूकि ये दोनो देश द्वितीय विश्वयुद्व में ब्रिटेन के खिलाफ थे इसलिए अंग्रेज बोस से ज्यादा खुन्नस खाते थे। टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट की वजह से बोस, बिस्मिल, अशफाक, आजाद आदि क्रांतिकारियों को 1947 के बाद भी पाठय पुस्तकों में आतंकवादियों का दर्जा दिया जाता रहा था। सबसे बड़ी चिंता की बात तो यह है कि टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट भारत को भारत कहने से रोकता है। दस्तावेजों में भारत का नाम इंडिया रखना हमारा बड़प्पन नही हमारी मजबूरी है। भारत ने गुरूकुल पद्वति से सम्पूर्ण विश्व पर राज किया किंतु टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट ने हमें मैकाले की त्रुटिपूर्ण शिक्षा व्यवस्था अपनाने को विवश कर रखा है। कुछ ऐसी थी टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट की विवशता, जिस पर प0 नेहरू ने हस्ताक्षर किये थे। गॉधी जी टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट के पक्ष में नही थे। वह 14 अग0 1947 की रात दिल्ली नही आये थे। उनका दिल्ली न आना उनका अहिंसात्मक विरोध था। उनका मानना था कि ...भारत को आजादी नही मिल रही है सिर्फ टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट हो रहा है। गॉधी जी उस समय नोआखली में थे और उन्होने वहीं से एक प्रेस नोट भेजा था कि मुझे खेद है कि मैं भारत को तथाकथित आजादी नही दिलवा पाया। कुछ लालची लोगों की सत्तालोलुपता ने स्वराज के स्थान पर टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट को स्वीकार कर लिया है।......यघपि प0 नेहरू ने देश के स्वाधीनता संग्राम में अमूल्य योगदान दिया। देश की विदेशनीति औा अपनी विद्वता के द्वारा सम्पूर्ण विश्व में अपना लोहा मनवाया। चाचा नेहरू के रूप में बच्चों को अपार प्रेम दिया। किंतु यह उनकी व्यक्तिगत उपलब्धियॉ हों सकती है। देश के संदर्भ में अपनी सत्तालोलुपता के चलते, टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट का जो दंश उन्होने देश को दिया है उसे हम आज भी भुगत रहे हैं। वास्तव में स्वयं से ईमानदारी आवश्यक है, सिर्फ ईमानदारी का आवरण नही। उच्च एवं अति उच्च शिक्षित होना व्यक्ति का चारित्रिक विश्लेषण नही करता। व्यक्ति की वास्तविक सफलता एवं व्यक्तित्व का मापदंड उसके नैतिक मूल्य होने चाहिए: शिक्षा, पद या धन का होना नही....? यह तो सिर्फ स्वार्थहित के लिए मापदंड बना दिये गये हैं। उच्च शिक्षित, उच्च पद पर प्रतिष्ठित एवं धनवान भी संवेदनशून्य हो सकता है एवं तीनो से रहित व्यक्ति भी संवेदनशील हो सकता है। वास्तव में संवेदनशीलता महत्वपूर्ण है, अन्य तत्व नही। राम प्रसाद बिस्मिल की ये पंक्तियॉ तात्कालीन भारत की दशा का वर्णन करती हैं ।
                                  इलाही खैर   वो हरदम    नयी  बेदाद करते है
                                        हम तोहमत लगाते हैं जो हम   फरियाद करते है
                                 सितम ऐसा  नही देखा    ज़फा  ऐसी नही देखी
                                        वो चुप रहने को कहते हैं जो हम फरियाद करते है


Friday, March 9, 2012

कितनी सुरक्षित महिलाए.....?


बलात्कार की घटनाओं को लेकर हमारी संवेदनशीलता क्या कुंद हो गई है..? ये सवाल अब पूछे जाने की जरुरत है। देश में एक के बाद एक बलात्कार की खबरें लगातार महिलाओं की सुरक्षा को लेकर सवालिया निशान लगा रही हैं। उन्हें लेकर पुलिस-प्रशासन और सरकार का रवैया ज्यादा चिंतित कर रहा है। हद तो यह कि बलात्कार जैसे घृणित अपराध का भी राजनीतिकरण किया जा रहा है। समस्या का हल पुलिस सुधारों के जरिए पीड़िता और उसके परिवार को न्याय मिलने का यकीन दिलाना है। इसके लिए अलग से बलात्कार सेल बनाए जाने की जरुरत है,जिसमें अधिकतर महिला पुलिस अधिकारी हों उन्हें बेहतर सुविधाएं और स्टाफ मुहैया कराया जाए। बलात्कार के मुकदमों की सुनवाई के लिए देश भर में फास्ट ट्रैक अदालतें बनाना भी एक अच्छा सुझाव है। बलात्कार पीडिता के प्रति संवेदनशील होना उसे कानून द्वारा प्रदान सुरक्षा दिलाने में अपने आप में काफी मददगार साबित हो सकता है। इसी तरह प्रोटोकोल का उल्लंघन निंदनीय है। नोएडा बलात्कार मामले में पुलिस ने अंजाने अथवा मूर्खता में पीड़ित का नाम प्रेस नोट के जरिए मीडिया को उपलब्ध कराया। सामाजिक दंश से जूझती बलात्कार पीड़ित के लिए वक्त बेरहम होता है और इसी वजह से उसकी पहचान सार्वजनिक नहीं की जाती। लेकिन, पुलिस इस वाक्ये के दौरान घोर असंवेदनशील दिखायी दी। कई मामलों में तो मीडिया का रुख भी सराहनीय नहीं होता। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि बलात्कार जैसे संगीन अपराध पुरुष प्रधान समाज के उन कुंठित लोगों द्वारा किए जाते हैं,जो महिलाओं को महज उपभोग की वस्तु मानते हैं। इस चलन पर रोक के लिए स्कूल-कॉलेजों में लिंग संवेदीकरण कार्यक्रम चलाए जाने की भी आवश्यकता है। इसके अलावा बलात्कार संबंधी मामलों के तेजी से निपटारे पर काम किया जाना जरुरी है। पर जमीनी हकीकत अलग है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूारो के आंकड़े बताते हैं कि देश में रोजाना बलात्कार के 53 से ज्याचदा मामले दर्ज होते हैं। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि यह संख्याक वास्तविक आंकड़े से काफी कम हैं। आंकड़े यह बताने के लिए काफी हैं कि महिलाओं की सुरक्षा के लिए गंभीर प्रयास किए जाने की जरूरत है। इस प्रकार की घटनाएं नियमित तौर पर हो रही हैं और इसमें हमें कुछ भी नया नहीं दिखता, लिहाजा हमें ये सोचने पर विवश करता है कि क्यां बतौर एक ऐसे देश के नागरिक, जो महिलाओं की सुरक्षा को लेकर एक समृद्ध परंपरा होने का दावा करता है, महिलाओं की सुरक्षा के लिए म वास्ताव में पूरा प्रयास कर रहे हैं ? अजीब विडंबना है कि जिस वक्त राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ममता शर्मा कहती हैं कि महिलाओं को ..सेक्सी.. कहे जाने को ‘ऑफेंसिव’ नहीं माना जाना चाहिए, लगभग उसी वक्त राजधानी दिल्लीं से सटे नोएडा में 17 वर्षीय छात्रा के सात पांच लड़के सामूहिक बलात्कार करते हैं। और ये जघन्य अपराध मेट्रो शहरों में महिलाओं को मिली झूठी सुरक्षा और आजादी के भ्रम का उपहास उड़ाता है। इसने एक राष्ट्रव्यापी बहस को जन्म दिया कि क्या  भारत में महिलाएं वास्ताव में सुरक्षित, स्वतंत्र हैं और क्या वास्त्व में उन्हें महिला होने का सम्मान प्राप्त  होता है?

उत्तर प्रदेश जोकि देखने में पुरुष वर्चस्व रखने वाला राज्य प्रतीत होता है। हकीकत में आज इस राज्य पर महिला राजनीतिज्ञों की पकड़ काफी मजबूत है। निवर्तमान मुख्य मंत्री मायावती जोकि 2007 में हुए राज्य के पंद्रहवें विधानसभा चुनाव के पश्चात चैथी बार राज्य की मुख्यमंत्री निर्वाचित की गईं थीं, इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं। बहुजन समाज पार्टी में महिलाओं की बागडोर जहां मायावती ने संभाल रखी है वहीं कांग्रेस की ओर से भी एक महिला नेत्री प्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्षा रीटा बहुगुणा जोशी ने मोर्चा संभाला हुआ है। भारतीय जनता पार्टी में उत्तर प्रदेश में महिला नेत्रि के रूप में उमा भारती है। सपा तो राजनीति में महिलाओं के वर्चस्व या इनकी अत्यधिक दखलअंदाजी को पसंद नहीं करती। राष्ट्रीय लोकदल भी पुरुष प्रधान राजनैतिक दल है। देश की राजनीति पर भले ही पुरुष समाज का नियंत्रण क्यों न हो परंतु महिलाओं ने भी स्वतंत्रता संग्राम से लेकर अब तक भारतीय राजनीति में अपनी जो जबरदस्त उपस्थिति दर्ज कराई है उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। आज भी देश में महिलाएं महत्वपूर्ण पदों को सुशोभित करती हुई देखी जा सकती हैं। चाहे वह देश के राष्ट्रपति का पद हो या लोकसभा अध्यक्ष का पद या फिर सत्तारुढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के अध्यक्ष का पद। देश के कई राज्यों के मुख्यंमंत्रियों की बात या राज्यपालों अथवा केंद्र व राज्य सरकार के मंत्रियों के पद। जहां तक उत्तर प्रदेश जैसे देश के विशाल राज्य का प्रश्र है जिसका क्षेत्रफल आज 2 लाख 43 हजार 286 किलोमीटर है, भी महिलाओं की भरपूर राजनैतिक दखलअंदाजी से अछूता नहीं रहा है। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी, इस पंक्ति को देश का बच्चा-बच्चा बड़े ही गौरवपूर्ण तरीके से बखान करता है। झांसी की महारानी लक्ष्मीबाई सौभाग्यवश इसी विशाल प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र की महिला थीं जिन्होंने अपनी राजनैतिक कुशलता व जुझारूपन के दम पर अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए। उसके पश्चात श्रीमती इंदिरा गांधी ने स्वतंत्र भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री के रूप में 14 वर्ष तक देश को मजबूत शासन दिया तथा अपने राजनैतिक कौशल का लोहा देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में मनवाया।

अब अगर प्रमुख दलों की तरफ आशावादी नज़रों से देखें तो रीटा जोशी की पारिवारिक पृष्ठभूमि भी काफी सुदृढ़ है। उनके पिता स्वर्गीय हेमवती नंदन बहुगुणा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तथा केंद्रीय मंत्री रहे हैं। उनकी माता कमला बहुगुणा भी सांसद रही हैं। स्वयं रीटा जोशी को दक्षिण एशिया की प्रतिष्ठित महिला का सम्मान संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा दिया जा चुका हैं। जहां तक महिला नेत्री के रूप में अपनी अलग पहचान रखने वाली उमा भारती का प्रश्र है तो वे भी उत्तर प्रदेश में महिलाओं के वर्चस्व की लड़ाई में काफी आगे हैं। राजनैतिक अनुभव की उनके पास भी कोई कमी नहीं है। मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री के पद से लेकर केंद्रीय मंत्री होने तक का शानदार अनुभव उनके पास है। शायद उत्तर प्रदेश आज महिलाओं के राजनैतिक वर्चस्व से अछूता नहीं है । पर महिलाओं से जुड़े अपराध और घरेलू हिंसा के मामले भारत में तेजी से बढ़ रहे हैं। इस बाबत कुछ लोगों का तर्क हो सकता है कि भारत का हाल कई देशों से बेहतर है। लेकिन, सही मायने में यह तर्क गंभीर मुद्दे से निपटने का बेहद भद्दा तरीका है। खासकर जबकि समस्या हमारी अपनी है। हमें इस तरह की घटनाओं को लेकर अब संवेदनशील होने की जरुरत है। हमें ‘जीरो टॉलरेंस’ नीति अपनानी होगी ताकि हमारी मांएं, बहनें, पत्नियां और बेटियां अपने काम पर बिना रोक टोक जाएं और सुरक्षित घर वापस आएं।