Friday, February 10, 2012

चुनाव सुधार: लाचार है...चुनाव आयोग..?





प्रियो भवति  दानेन प्रियवादेन चापरः
मंत्रमूलबलेनान्योयः प्रियः प्रिय एवं सः          विदुरनीति अध्याय 7
                                 इस विश्व में कोई व्यक्ति दान देने से, कोई मधुर बोलने से, कोई यंत्र एवं औषध से प्रिय 
                                होता है। किन्तु जो वास्तव में अच्छा एवं अनुकरणीय है, वह तो आजीवन स्वयं ही प्रिय 
                                 रहता है।

भारत विश्व का वह लोक तंत्र है जहाँ चुनाव वन डे क्रिकेट की तरह हर वर्ष होते हैं चुनावों का मौसम आते ही चुनाव आयोग की सरगर्मी तो  बढ़ जाती है! किंतु चुनाव ख़तम होने के बाद चुनाव सुधारों की बातें ठंडे बस्ते मे चली जाती हैं ये दुर्भाग्यपूर्ण है ?  चुनाव आयोग का नाम आते ही अनुकरणीय व्यक्तित्व टी0 एन0 शेषन का नाम ज़हन में घूमने लगता है, जिन्होने एक बेबस और लाचार संवैधानिक संस्था को शक्तियों के ताजे झोकें का आभास करा दिया। चुनाव आयोग एक संवैधानिक एवं स्वायत्त संस्था है, जिसका कार्य चुनावों कों ठीक ढंग से आयोजित करना होता है। यघ्पि, चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था  है जो संविधान के प्रावधानों के अनुसार कार्य करती है किंतु संविधान के प्रावधानों में सुधार संसद के हाथ में है। सांसद और विधायक चुनाव सुधारों के पक्षधर नही हो सकते । यह कदम उनको आत्मघाती लगता है। चुनावों की घोषणा होते ही कालाधन आना शुरू हो जाता हैं। चुनाव आयोग की कालेधन पर सख्ती दिखाई भी दे रही है। गाजियाबाद में 12 करोड, प्रबुद्व नगर से 80 लाख, शाहूजी महाराज नगर से 30 लाख, सहारनपुर से 25 लाख, फैजाबाद से 81 लाख, लखनउ से 10 किग्रा चॉदी की बरामदगी सिर्फ आयोग की सक्रियता का ही एक उद्वारण नही है, बल्कि काले धन के समानांतर साम्राज्य को भी दिखाता है। धन और बल के माध्यम से चुनावो को जीतने का इतिहास पुराना रहा है। बल पर नियंत्रण करने मे तो चुनाव आयोग कामयाब रहा है किंतु धन पर नियंत्रण के लिए उसे बहुत मेहनत करनी पड रही है। वास्तव में चुनाव सुधार एवं कालाधन एक दूसरे के पूरक मुददे हैं। कालेधन को नियंत्रित किये बगैर चुनाव सुधार संभव नही है। चुनावी खर्च की जो सीमा चुनाव आयोग ने तय की है उसका व्यवहारिकता में पालन नही हो पाता है। यह एक बडी़ महत्वपूर्ण वजह है कि कालाधन पिछले रास्ते से आता रहता है। बड़े कार्पोरेट घराने पार्टियों को फंडिग करते हैं। जो संवैधानिक तो है पर अलगे किस्म के कालेधन का एक स्रोत है। पार्टी फंडिग पर रोक लगाकर यह धन चुनाव आयोग को मिलना चाहिए एवं इसका आवंटन चुनाव आयोग द्वारा पार्टियों को होना चाहिए। जब ऐसा होने लगेगा तब चुनाव आयोग का दवाब राजनैतिक दलों पर होगा। अभी स्थिति यह है कि कानून मंत्री सलमान खुर्शीद अल्पसंख्यक आरक्षण संबंधी बयान देते हैं। चुनाव आयोग उनको नोटिस देता है। मंत्री जी नोटिस का मखौल बना देते हैं। स्थिति इतनी जटिल हो जाती है कि प्रधानमंत्री को बीच बचाव करते हुये चुनाव आयोग को आश्वस्त करना पड़ता है। इसी प्रकार मूर्तियों को ढॅकने का प्रकरण हास्यास्पद हैं। यदि चुनाव आयोग के पास चुनाव पूर्व शक्तियॉ होतीं तो वह निर्माण के दौरान ही मूर्तियों की नीयत पर सवाल उठा सकता था। किंतु तब वह स्वयं भी सफेद हाथी था। इसी प्रकार ई0वी0एम0 को भी पूर्णतः सुरक्षित नही माना जा सकता है। ब्लूटूथ एवं चिप की जानकारी द्वारा इसमे छेड़छाड़ संभव है। दिल्ली हाईकोर्ट ने भी 17 जन0 2012 को एक फैसले में यह तथ्य स्वीकार किया है। तकनीक का फायदा तो होता है किंतु तकनीक का दुरूपयोग पहले होता है। जितने होशियार व्यक्ति व्यवस्था में हैं उससे ज्यादा होशियार बाहर बैठे हैं।

टीम अन्ना एवं ऐसे अन्य सभी समाजसेवी संगठनों से उम्मीद है कि उनका चुनाव सुधार संबंधी अभियान देशहित मे शीघ्र होगा। लोकपाल भले ही पारित ना हो  पाया हो किंतु भ्रश्टाचार तो मुददा बन चुका है। खुद को भ्रश्टाचार मुक्त दिखाने के लिए पहले बीएसपी ने बाबूसिंह कुशवाहा को बाहर किया फिर यह हडडी बीजेपी के गले की फॉस बनी। कांग्रेस स्वकथित तौर पर बाबूसिंह कुशवाहा के कांग्रेस में न आने की बात कह चुकी है। अखिलेश यादव ने डीपी यादव को पार्टी में नही आने दिया। अब यह बात साफ है कि जाति आधारित राजनीति तो सब कर रहें हैं किंतु नैपथ्य में भ्रश्टाचार भी एक मुददा बना हुआ है। कालाधन एवं चुनाव सुधार के लिए लोग प्रतिक्षा में हैं। चुनााव सुधार के लिए अब संवैधानिक प्रावधानों को समझते हैं। संविधान का अनु0 324 चुनावों के दौरान आचार संहिता के माध्यम से चुनाव आयोग को स्थितियों को ‘‘नियंत्रित एवं निर्देशित’’ करने का अधिकार देता है। स्थितियों को ‘‘परिवर्तित’’ करने का अधिकार उसके पास नही है। चुनाव सुधार या चुनाव संबंधी उपबंधों में परिवर्तन का अधिकार अनु0 327 में संसद एवं अनु0 328 में राज्य सरकारों की विधायिका के पास होता हैं। चुनाव आयोग में एक मुख्य चुनाव आयुक्त एवं दो चुनाव आयुक्त होते हैं । माननीय सुप्रीम कोर्ट ने टी0एन0 शेषन बनाम यूनियन आफ इंडिया, 1995 के वाद में मुख्य चुनाव आयुक्त के अधिकारों का विकेंदिकरण करते हुये अन्य दो चुनाव आयुक्तों को भी लगभग समान अधिकार देने का निर्देश दिया था। चुनाव आयोग यदि कभी मनमानी करता है तो सुप्रीम कोर्ट उसे नियंत्रित भी कर देता है। चुनाव आयोग की मनमानी को रोकने का एक फैसला याद आ रहा है। ए0सी0 जोस बनाम सिवम पिल्लई, 1984 के वाद में चुनाव आयोग ने मतदान में मनमानी की थी। 34 बूथों पर पारंपरिक तरीके से एवं 50 बूथों पर इलेक्टानिक माध्यम से गिनती करवायी थी। सुप्रीम कोर्ट ने इसे संवैधानिक मानते हुये आयोग को निर्देशित किया था कि एक ही मतदान में दो तरह के मापदंड असंवैधानिक हैं। चुनाव आयोग को अनु0 327 के प्रावधानो का सम्मान करना चाहिए। अनु0 324 को संज्ञान में लेते समय संविधान के अन्य उपबंधों को, खासतौर पर केद्रिय सूची, राज्य सूची एवं संबंधित अन्य अनूसूचियों को भी संज्ञान में रखना चाहिए।

देश इस समय संक्रमण के दौर से गुजर रहा हैं। आने वाले 5 साल देश में राजनैतिक और सामाजिक उथलपुथल होती रहेगी। आने वाला समय देश के लिए महत्वपूर्ण होने वाला हैं। अब जैसे मैने प्रारंभ में विदुर नीति से बात शुरू की थी, उसी क्रम में टी0 एन0 शेषन,  किरन बेदी आदि, जैसी शख्सियतों के लिए सर सम्मान में झुक जाता है। यह लोग व्यवस्था मे व्यवस्थित नही हुये बल्कि अपनी छाप छोड़ गयें। यदि सब अपने अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते चलें तो स्थिति बद से बदतर होने से बच जायेगी। जो कुछ नही करता सिर्फ वही आलसी नही है आलसी वह भी है जो और बेहतर करने का प्रयास ही नही करता....??

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