Tuesday, January 31, 2012

64 पर रिटार्यड हर्ट...


 ....व्यवस्था....!! 
64 पर रिटार्यड हर्ट...


विप्राअस्मिन् नगरे महान् कथय कस्तालद्रुमाणं गणः
को दाता रजको ददाति वसनं   प्रातर्गृहीत्वा निशि
को  दक्षः  परवित्तदारहरणे   सर्वोपि  दक्षो  जनः
कस्माज्जीवसि हे सखे ! विषकृमिन्यायेनजीवाम्यहम्
         चाणक्य नीति, अध्याय 12, श्लोक 9
एक ब्राहमण से किसी ने पूछा, हे विप्र ! इस नगर में बड़ा कौन है ? ब्राहमण बोला, ताड़ के वृक्षों का समूह। प्रश्नकर्ता ने पूछा, इनमे दानी कौेन है ? ब्राहमण ने कहा, धोबी ! वह प्रातः काल कपड़े ले जाता है और शाम को ले आता है। प्रश्नकर्ता ने फिर पूछा, यहॉ चतुर कौन है ? उत्तर मिला दूसरों की बीवी को चुराने में सभी चतुर हैं। प्रश्नकर्ता ने आश्चर्य से पूछा, तो मित्र ! फिर यहॉ जीवित कैसे रहते हो ? तो उत्तर मिला कि, मैं तो ज़हर के कीड़ों की तरह बस किसी तरह जी ही रहा हूॅ।


हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने भ्रष्टाचार संबंधी अपने एक निर्णय में कहा है कि ‘‘यदि गंगोत्री से ज़हर आ रहा हो तो गंगासागर में अमृत कहॉ से मिलेगा’’। और इस पूरे लेख का सार भी इस वाक्य में निहित है कि ...1947 में भारत आजा़द नही हुआ था सिर्फ ‘सत्ता का स्थानांतरण’ हुआ था।...
 यही वजह कि आज के कानून अंग्रेजी सभ्यता के ज्यादा करीब नज़र आते हैं।आजादी के बाद हमारे यहॉ आर्थिक सुधार तो बहुत तेजी के साथ हुये किंतु न्यायिक सुधार, पुलिस सुधार एवं व्यवस्था सुधार में पर्याप्त प्रयास नही हुये। आर्थिक सुधार के द्वारा देश में पैसा बहुत आया। लक्ष्मी जी अकेले नही आती, कुछ ऐब भी लाती हैं। अब ऐसे ऐबी लोगों पर लगाम कसने के लिए ज़रूरी है कि आर्थिक सुधार, न्यायिक सुधार, पुलिस सुधार एवं व्यवस्था सुधार में सामंजस्य हो। ‘जन लोकपाल’ व्यवस्था में सुधार की अच्छी शुरूआत तो ह,ै किंतु अकेला चना भाड़ नही फोड़ता। इन सबके साथ जब तक हम पुराने चनों/कानूनों की आयलिंग नही करते, स्थिति मे ज्यादा परिवर्तन नही होगा। हमारे पुराने कानूनों की तो जैसे सरकारी नौकरी लगी हुयी है। व्यक्ति कर्मठ हो या निष्क्रिय, कार्यकाल पूरा करके ही दम लेगा। पहले रिटायरमेंट की आयु 58 थी फिर 60 हुयी। कुछ बुद्विजीवियो के लिए यह 62 भी है। इसके बाद उनकी सेवाओ से उन्हे रिटायर कर दिया जाता है। 2011 में आजादी को 64 साल हो गये हैं। इसके हिसाब से तो आजादी रिटायर हो चुकी हैं..? सिर्फ भावनाओं में उफान लाने के लिए मैने यह जुमला नही कहा है। यह एक ऐसी सच्चाई है जो यह सोचने को मजबूर करती है कि क्या बहुत सी जगहों पर, जैसे कानून, व्यवस्था, सोच एवं आर्थिक सुधारों में नये रिक्रूटमेंट की जरूरत नही है....? जंतर मंतर पर जन लोकपाल के लिए एकत्रित भीड़ को शायद यह तो पता नही था कि सुधार कैसे और कहॉ से होना चाहिए। हॉ, आशा की जो किरण उन्हे दिखायी दी उसमें उन्होने भरपूर रोशनी ज़रूर भर दी। 

सरकारी नीतियों में बहुत सी खामियॉ मौजूद हैं इसलिए देश में भारत और इंडिया के बीच फासिला लगातार बढ़ता चला जा रहा हैं। केंद्रिय मंत्री कमलनाथ की योजना आयोग पर हाल ही में की गयी टिप्पणी स्वयं बहुत से क्षेत्रों में कथनी एवं करनी का फर्क बता देती है कि ...आप लोग कुछ यहॉ से कुछ वहॉ से उठा कर किताब बना देते है। ए0 सी0 कमरों में बैठने वाले वास्तविकता क्या जाने ?... हमारी वर्तमान व्यवस्था भी व्यक्ति को ढ़ीठ बनाने का काम करती हैं। इस कहानी के द्वारा यह बात समझ में आती है। 

...एक सज्जन व्यक्ति बड़े से शोरूम के बाहर से गुज़रा। वह शोरूम को अंदर से देखना चाहता था। उसने गेट पर बैठे एक चौकीदार से पूछा क्या मैं अंदर जा सकता हूॅ ? चौकीदार ने मना कर दिया। सज्जन व्यक्ति चुपचाप एक तरफ बैठ गया। तभी एक ‘कूल डूड’ आया और सीधा अंदर चला गया। सज्जन व्यक्ति ने चौकीदार से पूछा ? आपने उसको क्यों जाने दिया तो चौकीदार बोला उसने मुझसे पूछा ही कब था..?...  नियमों को मानने वालों की यही नियति होती है। संपूर्ण व्यवस्था में उनकी स्थिति एक एलियन से कम नही होती ? भ्रष्ट एवं कमज़ोर तंत्र की यह विचित्र विडंबना है कि ईमानदार एवं पाबंद व्यक्ति की गुजर यहॉ एक दिन भी संभव नही है। ...सब चलता है.... के कांसेप्ट ने ही आज हमें उस मुकाम पर ला खड़ा किया है जहॉ 121 करोड़ लोगों में अन्ना हजा़रे एंड पार्टी दूसरे ग्रह के प्राणी जैसे लगने लगे हैं।

पहले अन्ना हजारे एवं अब बाबा रामदेव ने देश की उर्जा को केंद्रित कर दिया है। इस उर्जा का कितना उपयोग होता है यह देखना रूचिकर होगा। जिस प्रकार भारतीय संविधान को बनाने के लिए विभिन्न देशों के चुनिंदा अंश लिये गये हैं वैसा ही मजबूत व्यवस्था बनाने के लिए करना होगा। दूसरों से सीखना अच्छा होता है। हमें विकसित देशों का ‘बेस्ट’ लेना चाहिए ना कि ‘वेस्ट’। विकसित देशों की अधिकतर चीजे सही हो यह आवश्यक नही है। अंधा अनुकरण कर हमनें अपनी मानसिक शांति ही भंग की है। तकनीकी तौर पर तो हम आगे बढ़ रहे है पर मानवीय दृष्टिकोण से पिछड़ रहे है। विकसित देश आर्थिक खुशहाली का दंभ तो भरते हैं किन्तु मानसिक खुशहाली उनके पास नही है। फ्रॉस के राष्टपति निकोलस सरकोजी ने समग्रता में खुशहाली ढूंढने के लिए आग्रहपूर्वक कई नोबेल विजेता जैसे लेआर्ड, अमर्त्य सेन, स्टिंगलिज्ग, पार्थदास गुप्ता जैसे अर्थशास्त्रियों को मानवीय खुशहाली का पैमाना निर्माण करने को कहा है, जिसका आधार आर्थिक न होकर जीवन स्तर, बेहतर पर्यावरण एवं नागरिक हित हों। ओबामा ने भी कानून पारित करके ऐसे इंडीकेटर बनाने के लिए कहा है जिसमें खुशहाली का आधार जीडीपी व आर्थिक समृद्वि न हो। आज जब  भारत मे अंर्तराष्टिय बाजा़र एक बड़ा बाज़ार देखता है तब  हमें अपने यहॉ की मंदी में बहुत कुछ गवॉ बैठे देशों से बच के रहना हैं। वह अब भारत पर नज़रें गड़ायें बैठे हैं। विदेशी पूॅजी के द्वारा सेंसक्स में आयी बढ़ोतरी पूॅजी के जाते ही अर्थव्यवस्था को चोट पहुॅचा जाती है। तेजी का जश्न भी लोग मना नही पाते कि मंदी आ जाती है। सबसे ज्यादा प्रभावित मध्यवर्ग ही होता है क्योंकि.. वह आकॉक्षाओं को पालता है। सपनो के सच होने के लिए ही निवेश करता है और वह ही मुॅह की खाता हैं। आजकल देश में एम एल एम की भी भरमार हैं। इनमे सपने बेचे जाते है। बेराजगारों को रोजगार दिया जाता है। लाखों लोगों को करोड़ो कमाने का तरीका बताया जाता हैं। भारत में 80 प्रतिशत आबादी गरीब है जिन पर सरकार का कई हजार करोड़ खर्च होता है। यदि यह संस्थाए वास्तव में अमीर बनाती हैं तो सरकार गरीबों को दी जाने वाली सारी योजनाओं को स्थागित कर दें एवं सभी बीपीएल कार्ड धारको को इनका मेंबर बनवा दे। पूरे भारत से गरीबी मिट जायेगी एवं भारत फिर से सोने की चिड़िया बन जायेगा। अगर अमीर बनने की प्रक्रिया इतनी सरल है तो ऐसी कंपनियों के मालिक वास्तव में ‘भारत रत्न‘ के हकदार है। जो कार्य सरकारें करने में नाकाम रही, वह काम यह कंपनियॉ कितनी आसानी से कर रही है ? यदि वास्तव में यह कंपनियॉ सक्षम हैं तो इनको बढ़ावा दिया जाये अन्यथा भारत के मध्य वर्ग को इनके मोहजाल से बचाया जाये। इसमें नया शिगूफा स्पीक एशिया, अल गल्फ जैसी दर्जनों एमएलएम हैं। कुछ सवालों के जवाब द्वारा पूरा भारत अमीर बनने की प्रक्रिया में है। कुछ समय पूर्व मध्यवर्ग को शेयर का चस्का लगा था। कुकरमत्तों की तरह उगे नये निवेशकों में अधिकतर ने सिर्फ गवॉया। हॉ, कुछ भाग्यशालियों ने जरूर कमाया। इसके निवारण के लिए मध्यवर्ग को ऐसे पूॅजी निवेश की तरफ ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो हमारी अर्थव्यवस्था की जड़ों को मजबूत करे न कि मौसमी फल की तरह आकर विदेशी पूॅजी को सम्मानित करे और हमे कंगाल करके चला जाये। मुझे तो पूरा खेल ही संदिग्ध दिखायी देता है। मध्य वर्ग की पूॅजी पर पड़ता यह बौद्विक डाका है। हमारी स्वयं की पूॅजी जो विदेशों में फॅसी है या काले धन के रूप में जमा हैं, का भारत में वापस आना एवं स्थानीय विकास पर निवेशित होना तो लाभकारी लगता है, किंतु बौद्विक डाके  को पचा पाना अभी थोड़ा कठिन है। बढ़ती मॅहगाई के कारण  भारत का मध्यवर्ग इतना त्रस्त है कि वह धन कमाने के हर मोहजाल को सच मान लेता है। जब खर्च बढ़ रहे हों तब आखिर कमायी कहीं से भी हो। बढ़ानी तो पड़ेगी ही। प्रधानमंत्री जी ने 100 दिन के कार्यकाल में काले धन की वापसी का वादा किया था किन्तु अब तो उनके कार्यकाल को दो वर्ष से भी ज्यादा हो गया है। इस धन के द्वारा मॅहगाई नियंत्रण सहित बहुत से कार्यो में मदद मिल सकती है। इसी प्रकार ज़रूरी वस्तुओ की कीमतों का बढ़ना प्राकृतिक न होकर कृत्रिम है। महॅगाई एक ऐसा पहलू है जिसमें हाल ही में शुरू हुये वायदा कारोबार एवं व्यवस्था के छिद्रो का फायदा उठाकर पूॅजीपति और अधिक अमीर एवं गरीब, लाचार होता जा रहा है। 

हम भारतीय लोग कार्यो को अधूरा छोड़ देते हैं। कुछ समय काले धन एवं स्विस बैंक पर ध्यान लगाते हैं फिर खापों के तुगलकी फरमानों और अनावश्यक दिये जाने वाले फतवों का प्रतिकार करते हैं। कुछ समय महॅगाई पर भी चर्चा करते हैं। विश्व कप विजय का जश्न तो ऐसे मनाते हैं जैसे यह विजय हमारी समस्याओं के उपर समाधान की जीत हो। शायद हम कोई भी कार्य हाथ में लेकर एक सिरे से निपटाते नही हैं। समस्याए काफी उलझी हुयी हैं एवं रास्ता जटिल है। धरना प्रदर्शन करने वाले विपक्ष का कार्य भी सिर्फ सत्ता पक्ष का विरोध करना मात्र होता है मुद्दों को सुलझाना नही। मुद्दो के सुलझते ही सबकी राजनैतिक जमीन ही खिसक जायेगी।

Saturday, January 28, 2012

विकास का मॉडल है गॉधी दर्शन


महात्मा गॉधी द्वारा रचित ‘हिंद स्वराज’ पर, प्रधानमंत्री डा0 मनमोहन सिंह की अघ्यक्षता में प्रकाशित आलेख का अंश
    
सत्य एक विषाल वृक्ष है, ज्यों ज्यों उसकी सेवा की जाती है, त्यों त्यों उसमे अनेक फल उगते हुये दिखाई देते है। उनका अंत नही होता। ज्यों ज्यों हम गहरे पैठते हैं, त्यों त्यों उनमे से रत्न निकलते हैं। सेवा के अवसर हाथ आते हैं।          आत्मकथा, भाग 3, अध्याय 11

गंाधी ने हमें स्वाधीन राष्ट्र के रूप में आत्मसम्मान का अमूल्य उपहार दिया है ,जो हर युग में प्रासंगिक रहेगा। गांधी जननायक थे, जिन्हे किसी सत्ता का सहारा नही था। वे छल कपट से दूर स्वप्रेरित एवं लक्ष्यकेन्द्रित राजनीतिज्ञ थे। नैतिक मूल्यों से लैस एक ऐसे योद्वा, जिन्होने एक सर्वाधिक शक्तिषाली साम्राज्य को अपनी विन्रमता, दृढ़ इच्छाषक्ति और आदर्षवादिता के आगे बेबस एवं शक्तिहीन बना दिया। गंाधी दर्षन एक सौरमंडल की तरह है। जिसमे सत्य सूर्य की तरह आलोकित हैं। अहिंसा, नैतिकता, षिष्टता, आत्मबल ,कर्त्तव्य, समानता आदि सत्य के इर्द गिर्द चक्कर लगाते रहते हैं। गांधी दर्षन स्वयं एक शक्तिषाली अस्त्र शायद न लगे, किन्तु सापेक्षिक तौर पर अन्य विचारधाराओं पर यह सबसे कारगर शस्त्र की तरह मार करता है। अन्य विचारधाराएं कभी सम्बद्व प्रतीत होती हैं, कभी अप्रायोगिक। उनके बारे में एक निष्चित रूपरेखा कभी भी प्रस्तुत नही की जा सकती, किन्तु इस महान सौम्य प्रकाष पुंज की अनुभूति तो अनंतकाल के लिए है। 

गॉधी दर्षन पर आधारित विकास का मॉडल: किसी भी देष के विकास का उदगम उसकी मूलभूत संरचना के माध्यम से आरम्भ होता है। विकास का चक्र गा्रहय होना चाहिये, चर्चा तो सिर्फ माध्यम के बिंदुओं पर होनी चाहिये। भारत के पिछड़े से विकासषील एवं विकासषील से विकसित की तरफ बढ़ने की संभावना तो अर्थपूर्ण है, किन्तु प्रक्रियाओं में सुधार की गंुजाइष अवष्य हैं। सार्वभौमिकरण एक उचित माध्यम है आर्थिक विकास का। आज डेढ़ दषक में इसको काफी हद तक परख भी लिया गया है। जरूरत है तो सिर्फ उन बिंदुओं पर पुर्नविचार करने की, जिनके द्वारा अपेक्षाकृत हानि भी हुयी है। सार्वभौमिकरण का सबसे नकारात्मक पक्ष जो उभर के सामने आया है, वह नैतिक मूल्यों का पतन है, और नैतिक पतन की एक मूल वजह अंग्रेजी भाषा का अति एवं अनावष्यक इस्तेमाल भी है। अंग्रेजी भाषा का विरोधी तो मैं भी नही हूॅ, क्योंकि भाषा का कार्य दो पक्षों के मध्य ‘कम्यूनिकेषन’ मात्र होता है और कुछ नही। किन्तु इससे स्वभाषा/हिन्दी की हानि अवष्य हुयी है। भारत की संस्कृति की बुनियाद एवं रूपरेखा भारतीय भाषाओं को केन्द्रबिन्दु मानकर ही संचालित है। नींव में दरार से सम्पूर्ण इमारत प्रभावित होती है और धीरे धीरे इमारत एक ख्ंाडहर की तरफ बढ़ने लगती है। हमें ये बात साफ तौर पर समझनी चाहिये, कि जिस संस्कृति की परवरिष में वर्षो की प्रक्रिया सम्मिलित रही हो, मूलभूत ढांचा भी उसी के इर्द गिर्द घूमता है। विकासषील से विकसित होने की प्रक्रिया यदि इसी ढांचे के इर्द गिर्द होगी तो नयी तस्वीर स्थायी एवं दीर्घकालिक होगी, अन्यथा बीच बीच में बाधाएं आकर विकास की गति को अवरूद्व करती रहेंगीं। रूस, चीन, जापान जैसे देष विकास के मार्ग को स्वभाषा के इर्द गिर्द ही केन्द्रित किये हुये है जिसका परिणाम है कि उनकी सांस्कृतिक विरासत एवं कला पर प्रहार अपेक्षाकृत कम हो पाये हैं। अपने संसाधनों का इस्तेमाल भी स्वभाषा में अपेक्षाकृत बेहतर एवं सरलता से हो सकता है। कार्यक्षमता एवं दृष्टिकोण की उपादेयता और बेहतर परिलक्षित हो सकती है। अंग्रेजी भाषा के द्वारा विकास तो हुआ है यह मैं भी मानता हूॅ, रोजगार के अवसर भी बढ़े हैं, सड़के, संचार माध्यम एवं अन्य क्षेत्रों में भी तरक्की हुयी है किन्तु ये सार्वभौमिकरण का सकारात्मक पक्ष मात्र है। जिन क्षेत्रों में रोजगारों का सृजन हुआ है उनमे से अधिकतर आउटसोर्सिंग से हैं। दूसरे शब्दों में निवेषक देषों ने भारत की श्रम शक्ति को दुहा है। यदि यह देष अपने हाथ वापस खींच लें, तो रोजगार के अवसर भी जाते रहेंगें। उद्वारण के लिए यदि किसी अमेरिकी कम्पनी ने अपना काल सेन्टर भारत में स्थापित किया है, तो वहॉ अंग्रेजी भाषा का इस्तेमाल ही होगा। हमारी हिंदी को प्रोत्साहित करने के लिए सारे अमेरिकी तो हिन्दी को नही सीखेंगें। और यदि भारतीय काल सेन्टर की स्थापना होती है, जैसे कृषि काल सेन्टर, तो यहॉ हिन्दी का ही इस्तेमाल होगा। ऐसें आधारभूत क्षेत्रों में निवेष को प्रोत्साहित करने से हिंदी स्वतः प्रोत्साहित हो जायेगी। इसके अतिरिक्त यदि क्षेत्रिय कलाओं पर आधारित क्षेत्रों को भी प्रोत्साहन दिया जाये तो रोजगार के अवसर अपेक्षाकृत स्थायी होंगंे। और सार्वभौमिकरण के द्वारा इनका विपणन किया जाये तो ऐसे में सार्वभौमिकरण का पूॅजीगत फायदा भारत को भी होगा, सिर्फ बाहरी शक्तियों को नही। उद्वारण के लिए लस्सी एवं छाछ को साफट ड्रिंक पर तरजीह दिलवाना गंाधी दर्षन का ही परिष्कृत रूप है। हिन्द स्वराज मे गॉधी जी भी मषीन की इसी प्रक्रिया से चिंतित थे, वह मैनचेस्टर में बने कपड़ों के विरोधी नही थे, उनकी चिंता तो सिर्फ चरखों की आत्मनिर्भरता की कमी से थी। उनका बैर रेलगाड़ी के आगमन से नही था, बल्कि उसके द्वारा असामाजिक तत्वों की बढ़ती सक्रियता से था। गॉधी जी की चिंता सदैव आत्मनिर्भरता में कमी से थी, विकास के पथ से नही...?  

सभी विकसित देष आर्थिक दृष्टिकोण को सर्वोपरि रखकर ही सार्वभौमिकरण की प्रक्रिया द्वारा उदारीकरण के पथ पर आगे बढ़े हैं। प्रत्येक मल्टीनेषनल के लिए उसके व्यापारिक हित सर्वोपरि हैं। व्यापारिक दृष्टिकोण से यह गलत भी नही है। हमें तो सिर्फ ऐसा माहौल पैदा करना है, जिसमें केन्द्र बिन्दु भारत का ‘सांस्कृतिक ढांचा’ हो एवं सम्पूर्ण प्रक्रिया इसके इर्द गिर्द ही रहे। बर्हुराष्ट्रीय कंपनी के यहॉ कर्मचारी एक तरह से बांडेड लेवर की तरह होते हैं। उनकी मेधा का इस्तेमाल कंपनी अपनी ज़रूरतों के मुताबिक करती है। बर्हुराष्ट्रीय कंपनी के नीति निर्माण में हमारी कोई दखलअंदाजी ंनही होनी चाहिए, किन्तु सरकार की तरफ से एक चीज तो निर्देषित की ही जा सकती है, क् िकार्य आरम्भ के समय तिरंगे के समक्ष उपस्थित होकर राष्ट्रगान की धुन बजाना अनिवार्य है। यह प्रक्रिया धीरे धीरे स्वतः ही राष्ट्रवाद की भावना को प्रबल करने लगेगी...? उदारीकरण का अर्थ सिर्फ दो देषों के मध्य बढते व्यापार से नही माना जाना चाहिए, बल्कि एक ही देष के दो प्रदेषों के मध्य भी यह एक बेहतर विकल्प है। नदियों को नेटवर्किंग के द्वारा जोड़े जाने का प्रस्ताव भी इसी सोंच का एक प्रारूप है। बाढग्रस्त एवं सूखाग्रस्त क्षेत्रों की नदियों को नेटवर्किंग के द्वारा जोड़कर दोनो आपदाओं को कुछ हद तक अपेक्षाकृत नियंत्रित तो किया ही जा सकता है, और ऐसी किसी भी योजना के लिए विदेषी निवेष सदैव स्वागतयोग्य है। इस प्रकार जल परिवहन के क्षेत्र में भी एक क्रंाति आयेगी, जो अन्य उपलब्ध विकल्पों से भी एक सस्ता आयाम उपलब्ध करायेगा। यूरोप एवं अमेरिका के कई देषों में यह एक प्रचलित व्यवस्था है। इसी प्रकार दिल्ली के सफलतम प्रयोगों में से एक एवं अन्य प्रमुख शहरों में प्रस्तावित मेट्रो रेल भी स्वागतयोग्य कदम हैं। ये सभी प्रयोग भारत के मूलभूत ढांचे को ही मज़बूत कर रहे है। इसी प्रकार क्षेत्रिय कलाओं में भारत की आत्मा झलकती है, भारत के हस्तषिल्प की कारीगरी तो दुनियॉ में मशहूर है। कुछ हुनर प्रकृति द्वारा विषेष एवं चुनिंदा लोगों को ही दिये जाते हैं, किन्तु अधिकांष स्थानो पर इस हुनर का सम्पूर्ण उपयोग नही हो पा रहा है। कारीगर अपने हुनर से दूर हट रहे हैं एवं मजदूरी करने पर विवष हैं। यदि पॅूजींगत निवेष को दृष्टिगत रखते हुये इन क्षेत्रों की मिल्किंग/पुर्नरूद्वार करके इनकी ग्लोबलाइज्ड मार्केंटिंग/वैष्विक विपणन की जाये, तो इन क्षेत्रों में भी छोटे छोटे निवेषक अवष्य ही अपनी रूचि दिखायेंगें। इससे लोगो में स्वरोजगार के द्वारा आत्मनिर्भरता भी बढ़ेगी एवं क्षेत्रिय असंतुलन भी घटेगा। राष्ट्रवाद बढेगा एवं हिन्दी को ख़ुद ब ख़ुद अंग्रेंजी पर वरीयता मिलने लगेगी। यह भी व्यापार का सार्वभौमिकरण ही कहा जायेगा। यूरो की तर्ज पर द0 एषिया में भी एक साझी मुद्रा पर विचार करना बेहतर आर्थिक विकल्प रहेगा, किन्तु इसके पहले क्षेत्रिय कलाओं को प्रोत्साहित करना प्राथमिकता होनी चाहिए।..किसी रेखा को बिना स्पर्ष किये छोटा करने का एक नज़रिया यह भी है, कि उसके समक्ष एक बड़ी रेखा खींच दी जाये, पहले वाली स्वतः ही छोटी लगने लगती है।.... यही अहिंसक गॉधी दर्षन है। 

उदारीकरण जहॉ कहीं भी आत्मनिर्भरता को प्रेरित करता प्रतीत हो, वहॉ वह स्वागतयोग्य है। सकारात्मक सोंच सदैव विकास के पथ को उत्प्रेरित करती है। अच्छाई किसी भी रूप में मौजूद हो, कीचड़ में खिले कमल की तरह ग्रहण कर लेनी चाहिए। ‘हिन्द स्वराज’ में एक प्रकरण में गोखले जी का जिक्र है। गोखले जी के अनुसार ‘‘ भारत को अभी स्वराज की आवष्यकता नही है, अभी हमें अंग्रेंजों़ से राज़नीति की समझ सीखनी चाहिए ’’। इस पर गॉधी जी कहते हैं कि ‘‘ केवल प्रौढ़ एवं तर्ज़ुबेदार लोग ही स्वराज भुगत सकते हैं, न कि बेलगाम लोग.......हमें गोखले जी की सोंच का भी आदर करना चाहिए। वह यह बातें अंग्रेज़ों को प्रभावित करने के लिए नही, बल्कि हिन्द के लिए अपनी भक्ति के फलस्वरूप कहते हैं।.....‘‘ 


Honour Killings



सभ्यता ओढ़े समाज का कड़वा सच.....?


बाधाए कभी सहानुभूति पाने का माध्यम बनती हैं एवं कभी नयी शुरूआत का आधार। सहनशीलता भारत की पहचान रही है और यही विलुप्त होती जा रही है। सदन में ही जब सांसद एवं विधायक तक आक्रामकता प्रदर्शित कर रहें है तो बाकी का तो कहना ही क्या। आक्रामकता ने आजकल एक नया शब्द आनर किलिंग पैदा किया है। पाशविकता की हद पार करते कई प्रकरण लगातार सामने आ रहे हैं। मथुरा के गॉव मेहराना के हत्याकॉड में हाल ही में 16 नव0 2011 को अदालत ने 8 लोगों को फॉसी की सजा सुनायी है। 27 लोगों को अदालत ने उम्र कैद की सजा सुनायी है। माननीय सुप्रीम कोर्ट पहले ही ऑनर किलिंग को ‘विरल से विरलतम’ की श्रेणीं में रख चुका है। पूर्व में खुद को कानून से उपर समझ रही खाप पंचायतो की सीमाएं भी अदालत ने तय कर दी थी। हरियाणा के कैथल में स्वगोत्र विवाह पर विरोध जताते हुये खाप पंचायत ने प्रेमी युगल मनोज एवं बबली को मौत के घाट उतरवा दिया था। यह पूरी कार्यवाही भी सिर्फ वर्चस्व दिखाने के लिए की गयी थी। मामला अदालत के संज्ञान में आने पर अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश वाणी गोपाल शर्मा ने पॅाचो पंचो को मौत की सजा एवं बाकी को कारावास की सजा सुनायी थी। कुछ फैसले देश के सामाजिक भविष्य की रूपरेखा तय करते हैं। शाहबानों प्रकरण भी एक ऐसा ही संजीदा मामला था। जाति, धर्म, और समाज के स्वयंभू ठेकेदारों पर अदालती नकेल एक ताज़ा हवा के झोंके की तरह ताजगी पैदा करते है। स्थानीय एवं सामाजिक संगठन अक्सर खुद को कानून से उपर समझकर भारतीय संविधान को सीधी चुनौती देते हैं। स्थानीय संगठनो के दिल में जब कानून एवं व्यवस्था के प्रति सम्मान नही रह जाता है, तभी स्थिति जटिल से जटिलतम होती हैं।

स्वगोत्र विवाह पर व्यापक जागरूकता अभियान चलाया जाना चाहिए। भारतीय संस्कृति के दृष्टिकोण से देंखें तो सामाजिक ताना बाना काफी बिगड चुका हैं। स्वच्छंदता के नाम पर की जाने वाली बहुत सी गतिविधियॉ सही नही है किन्तु किसी के व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप करना गलत होता है। व्यक्ति की अति महत्वाकॉक्षाएं सबसे पहले उसको ही निशाना बनाती है। मॉ बाप भी बच्चों के क्रियाकलापों को बढ़ा चढ़ा कर पेश करते हैं। वे बच्चों को उन लोगों को अपना आदर्श बनाने के लिए कहते हैं जो अपने क्षेत्रों में तो सफल होतें हैं किन्तु आचरण से अनुकरणीय नही होते। शायद यहीं से सामाजिक ताना बाना बिग़डता चला जाता है। तस्वीर का उजला चेहरा संपूर्ण तस्वीर को प्रदर्शित नही करता। बच्चे भी आचरण को प्राथमिकता न मानकर नौकरी एवं पैसे को सर्वस्व मान लेते हैं। समाज एक बड़ा वर्ग अभी भीतर से आधुनिक नही हुआ हैं किन्तु आधुनिकता का कृत्रिम उपरी आवरण उसने ओढ़ रखा है। ब्रांडेड कपड़े पहनना, पिज्जा खाना, मोबाइल पर लंबी बातें करना, सड़को पर कहीं भी गुटखे से रंगोली बना देना, वाहन को अनावश्यक रूप से तेज चलाना, स्टेटस के लिए गर्ल फ्रेंड/ब्याय फ्रेंड रखना आदि आधुनिकता नही है। वास्तविक वैचारिक आधुनिकता एवं आधुनिकता के आवरण के बीच में जो ‘ब्रिजिंग गैप‘ है वही शायद आनर किलिंग की घटनाओं में आयी अचानक तेजी के लिए जिम्मेदार है। यह एक संवेदनशील मुद्दा है। अप्रैल से जून के मध्य 19 घटनाए हुयी। मॉ द्वारा बेटी को, पिता द्वारा पुत्री, भाई द्वारा बहन का कत्ल करना यह दर्शाता है कि कत्ल के समय भावनाओं का आवेग क्या रहा होगा। रिश्तों का खून करना आसान नही होता। समस्या की जड़ सिर्फ आनर किलिंग नही है बल्कि लव बनाम अरेंज मैरिज भी है। वास्तविक समस्याओं को दूर करने में नाकाम व्यक्ति अपने करीबी लोंगों की ज़िदगी एवं सोंच पर अपना अधिकार समझने लगता है। वह उनको अपने हिसाब से चलाना चाहता है। बाढ़ या सूखे पर उसका नियंत्रण नही है किन्तु बहन पर तो है। डीजल की कीमते कम करवा नही सकते, टूटी सड़के बनवा नही सकते किन्तु बेटी को तो मनचाही जगह ब्याह सकते हैं..? जब यहॉ भी उसे असफलता मिलती है तो वह बौखला जाता है। फिर स्वयं की सारी असफलताओं का ठीकरा प्रेमी युगल पर पड़ता है। लगता है जैसे सारी समस्याए प्रेमियों के कारण ही हो रही थी। लोग समाज के उकसावे एवं दबाव में आकर वारदात तो कर देते हैं किन्तु खुमारी उतरने पर जो आत्मग्लानि होती है वह भीतर तक झकझोर देती है।

कहा जाता है कि सबसे बुरा दिखता आदमी सबसे अच्छी सलाह देता है। स्थानीय संगठन/खाप पंचायत, यदि सकारात्मक दृष्टिकोण अपनायें तो इनका प्रयोग क्षेत्र के विकास एवं स्थानीय स्तर के छोटे दीवानी मुकदमों को निपटाने के लिए लोक अदालत की तरह किया जा सकता है। विचारयोग्य है कि, यघपि खापों के कार्य करने के तरीके पर एतराज किया जा सकता है किंतु स्वगोत्र विवाह संबंधी उनकी मॉग को अनदेखा भी नही किया जाना चाहिए। हिंदू धर्मग्रंथों में स्वगोत्र विवाह को वर्जित माना गया है। याज्ञवल्य स्मृति 1.53 में स्वगोत्र विवाह को गुरू की पत्नी से व्याभिचार तुल्य कहा गया है। इसकं अतिरिक्त आपस्तंब धर्मसूत्र 2.11.15, विष्णु धर्मसूत्र 24.9-10, वशिष्ठ धर्मसूत्र 8.1, बौधायन धर्मसूत्र 2.1.38, गौतम धर्मसूत्र 4.2,23.12 आदि अनेको हिंदू ग्रंथों में स्वगोत्र विवाह को वर्जित माना गया है। कुछ स्मृतियों में इनकी संतानो को चांडाल तक कहा गया है। सामाजिक रीति-रिवाज एवं कानून के मध्य के इस टकराव का हल होना ही चाहिए । आज के हाईटेक युग में विचार ज़बरदस्ती किसी पर थोपे नही जा सकते।जो विचार प्रभावशाली होंगें वह स्वयं लोगों को प्रभावित कर देंगें। धार्मिक परम्पराओं की अधिकतर बातें वैज्ञानिक आधार वाली हैं किन्तु उनको ठीक ढंग से लोगों के समक्ष रखा नही जाता है। फलस्वरूप युवा वर्ग उन बातों को कुतर्कसंगत मानकर बड़ो की बाते ही सुनना बंद कर देता है। बुजु़र्गाें का काम युवाओं तक सिर्फ वास्तविक दृष्टिकोण पहुॅचाना होना चाहिए। फैसला स्वयं उन्हे करने दीजिए। मनुष्य स्वभाव है कि वह समझाने से नही समझता है, ठोकर खाने के बाद ही संभलता है ? समय के साथ साथ प्राथमिकताए बदलती हैं। पुरानी बाते गलत नही होती किन्तु समय, काल एवं परिस्थिति के अनुरूप बदलाव न करने से उसकी सार्थकता जरूर कम लगने लगती है। कंप्यूटर साफटवेयर की तरह समय समय पर विचारों का अपग्रेडेशन भी करते रहना चाहिए। इस संदर्भ में कानून से सुधार की ज्यादा उम्मीद करना बेमानी होगा। कानून का अर्थ है विचारों को उपर से थोपा जाना। ये तो आखिरी चारा होता है। समाज रूपी संस्था को चलाने के लिए कानून होते हैं, कानून को चलाने के लिए सामाजिक संस्थाए नहीं हैं...! भारत में न्याायधीश तो मैरिज एक्ट के अनुसार ही निर्णय दे सकते हैं किन्तु कभी कभी स्वविवेक से तर्कपूर्ण निर्णयों की आवश्यकता होती है। न्याायधीशों को कानून के ज्ञान के साथ धार्मिक ज्ञान भी होना चाहिए। सिर्फ धार्मिक ज्ञान होने से कोई मजहबी नही हो जाता। एक बड़ी ही विचित्र स्थिति है कि न्यायाधीश यदि धार्मिक ज्ञान की बात भी करता है तो वह सांप्रदायिक मान लिया जाता है। ब्रिटिश एवं अंग्रेजी कानूनों में वहॉ के मजहब का विशेष महत्व है। वहॉ न्यायाधीशों के लिए व्यापक धार्मिक ज्ञान होना आवश्यक शर्त है। ब्रिटेन में राज्य प्रमुख/ क्राउन वहॉ के मजहब का आधिकारिक संरक्षक होता है। भारत का राष्टपति हिंदू धर्म का आधिकारिक संरक्षक नही है। वह अल्पसंख्यको के मजहबो का संरक्षक जरूर बनाया गया है। भारतीय संविधान, इंडिया एक्ट 1935 का संशोधित रूप जरूर है किन्तु इस महत्वपूर्ण प्रावधान को उसमें से हटा दिया गया था। सोवियत संघ का विघटन इस बात का साक्षात प्रमाण है कि किस प्रकार आंतरिक गतिरोध महाशक्ति को भी मामूली शक्ति बना सकते हैं। ब्रिटेन एवं रूस के लोग भारत के सांस्कृतिक ढ़ॉचे को बहुत ही गंभीरता से लेते हैं। ढेरों भिन्नताओं के बावजूद भारत का एकजुट रहना विदेशी सभ्यताओं के लिए आज भी मिसाल है।



Friday, January 27, 2012

मंदी की आहट....!!



       खतरनाक है यह मंदी की आहट....!!

एक साल पहले जो डालर रू 43 के आस पास था वह आज रू 50 के उपर है, जबकि सबसे ज्यादा मंदी का शिकार अमेरिका है भारत नही। इसका अर्थ है कि अमेरिकी कंपनी तो भारत में अच्छा व्यापार कर रहीं हैं। संकट भारतीय कंपनियों पर हैं। यह मंदी भारतीय कंपनियों को निगल रहीं हैं। भारतीय नागरिेक जितना ज्यादा अपने सामानों का इस्तेमाल करेंगें उतना रूपया मजबूत होगा। वित्त मंत्री ने भी इस बात की तस्दीक की है कि उनके पास मंदी से निबटने के सीमित विकल्प हैं। आईएमएफ और संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि दुनिया भर में आर्थिक मंदी धीरे-धीरे पैर पसार रही है। लाचार ये संस्थामएं सभी देशों से गुहार लगा रहे हैं कि मिलकर इस मंदी का मुकाबला करें। पर क्या विकास की पटरी पर दौड़ रहे भारत और चीन इस मंदी का मुकाबला कर पाएंगे? इंडियन इकोनॉमी की दूसरी तिमाही में भारत की घटती विकास दर इसी बात का संकेत है। दूसरी तिमाही में भारत की आर्थिक विकास दर पिछले साल की दूसरी तिमाही (8.4 प्रतिशत) के मुकाबले में गिर कर 6.9 प्रतिशत हो गई। ये लगातार आठवीं तिमाही है जब भारत के सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर आठ प्रतिशत से नीचे रही। इससे पिछली तिमाही में विकास दर 7.7 प्रतिशत थी। अर्थशास्त्री राधिका राव का भी कहना है कि 2009 में दूसरी तिमाही की विकास दर से लेकर अब तक की सबसे कम विकास दर है और आगे के लिए आसार अच्छे नहीं हैं। कमरतोड़ महंगाई, रुक-रुक कर हो रहे सुधार, बढ़ी हुई ब्याज दरें और नकारात्मक अंतरराष्ट्रीय आर्थिक माहौल से आसार अच्छे नहीं दिख रहे हैं। आर्थिक संकट के चलते चीन के मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में तीन साल में पहली बार गिरावट आई है। चीन में परचेजिंग मैनेजर्स इंडेक्स (पीएमआई) अक्तूबर के 50.4 से घटकर अब 49 पर आ गया है। पीएमआई से मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र की गतिविधियों का आकलन किया जाता है। चीन के प्रॉपर्टी बाजार में भी फिलहाल मंदी का दौर है। यूरो जोन की खस्ताहाल इकोनॉमी ने संकट और बढ़ा दिया है। 2008-09 की आर्थिक मंदी के बाद कई समस्याएं अनसुलझी रहीं। इसके कारण प्रमुख विकसित देशों की आर्थिक हालत खस्ता है। विकसित देशों ने ऐसे कदम उठाए, जिससे संकट और गहरा गया। अमेरिका और यूरोप के संकट के असर से विकासशील देशों में भी विकास की रफ्तार कुंद पड़ गई।

सरकार यह दावा कर रही है कि खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश आने से रोजगार सृजन होगा। पर जिसे थोड़ी सी भी दूसरे देशों में खुदरा क्षेत्र में बड़े कारपोरेट घरानों के आने के असर के बारे में पता होगा वह यह बता सकता है कि यह दावा खोखला है। हकीकत तो यह है कि खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के आने से रोजगार सृजन तो कम होगा लेकिन बेरोजगारी और ज्यादा बढ़ेगी। राजनीति, अर्थनीति और संस्कृति को कारपोरेट हितों के लिए निर्देशित और नियंत्रित करने की गति द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद काफी तेज हो गई। सोवियत रूस और अमेरिका के बीच शीतयुद्ध के कारण इसमें जो थोड़ी-बहुत शिथिलता आई थी, वह सोवियत रूस के विखंडन के बाद दूर हो गई। एक ध्रुवीय दुनिया का दंभ पालने वाले अमेरिका ने बेरोक-टोक अपनी कारपोरेट हितैषी नीतियों को दुनिया पर थोपना शुरू किया। लेकिन यह प्रक्रिया अब अपने ही बोझ के कारण बिखर रही है। एस. गुरुमुर्ति जैसे लोगों ने पश्चिमी अर्थशास्त्र की संकल्पनाओं की असफलता और असमर्थता को चिन्हित किया है। उनका कहना है कि हमें अपनी आर्थिक सोच में मूलभूत बदलाव लाने की जरूरत है। 500 वर्षों से दुनिया में जिस आर्थिक व्यवस्था का बोलबाला रहा है, उसे बदलने के लिए भारतीय चिंतन की रोशनी में अर्थनीति, राजनीति और समाजनीति के पुनर्गठन पर बल दिया जाना चाहिए। भारतीय जीवन दर्शन, जीवन लक्ष्य, जीवन मूल्य और जीवन आदर्श के अनुरूप जीवनशैली अपनानी होगी। इसके लिए अनुकूल राजनीति और अर्थनीति को परिभाषित करने और उसे साकार करने की जरूरत है। पिछले लगभग 100 वर्षों से केन्द्रीयकरण, एकरूपीकरण, बाजारीकरण और अंधाधुंध वैश्वीकरण को ही सभी समस्याओं का रामबाण इलाज माने जाने की मानसिकता से हटकर विकेन्द्रीकरण, विविधिकरण, स्थानिकीकरण और बाजार मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ने से ही आज की अपसंस्कृति की सुनामी से बचा जा सकेगा। समता और एकात्मता के अधिष्ठान पर देशी सोच और विकेन्द्रीकरण को आधार बनाकर आर्थिक, राजनैतिक व्यवस्था का पुनर्गठन ही आज की विषम परिस्थितियों से पार पाने का रास्ता होगा।

जिस यूरोपिय देशों के मॉडल को हम वर्तमान में अपनाये हुये हैं उनका हाल कुछ यूॅ है। पहले से ही ऋण संकट से जूझ रहे यूरो जोन देशों के लिए बुरी खबर अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पूअर ने यूरोप की मजबूत अर्थव्यवस्था माने जाने वाले फ्रांस की ऋण साख घटा कर दी है। रेटिंग एजेंसी ने फ्रांस के अलावा 8 और देशों की ऋण साख घटाई है। इनमें ऑस्ट्रिया, स्लोवोनिया, स्लोवाकिया, स्पेन, मालटा, इटली, साइप्रस और पुर्तगाल शामिल है। हालांकि जर्मनी की ऋण साख स्थिर बनी हुई है। देशों की ऋण साख घटने से एक बार फिर से मंदी लौटने के संकेत दिख रहे हैं। फ्रांस के वित्त मंत्री फ्रांस्वा बारवांग ने कहा है कि अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड ऐंड पूअर ने उनके देश की रेटिंग ट्रिपल ए से नीचे कर दी है। उन्होंने कहा कि ये अच्छी खबर नहीं है लेकिन ये प्रलय की स्थिति भी नहीं है। इटली पर गौर करें तो यह कर्ज लेने के मामले में दूसरा सबसे बड़ा यूरो देश है। ना ही यह देश सरकारी खर्चों को कम करके आर्थिक व्यवस्था को मजबूत करने की किसी योजना पर काम कर रहा है। इसलिए इस देश को ए रेटिंग देना ही सही है। यूरो जोन के देशों में आई आर्थिक समस्या के बाद स्पेन, आयरलैंड, ग्रीस, पुर्तगाल और सायप्रस जैसे देशों की क्रेडिट रेटिंग फिसली थीं। अब इटली भी इन्हीं देशों की कतार में खड़ा हो गया है। एजेंसी का ऑकलन है कि उन्होंने इस रेटिंग का आधार देश की मौजूदा आर्थिक स्थिति को बनाया है लेकिन इसके साथ इस बात पर भी ध्यान दिया है कि वर्तमान आर्थिक समस्या से वह देश कैसे निपट रहा है। भारत, मलयेशिया और जापान सहित कई अन्य देशों की भी क्रेडिट रेटिंग घटायी जा सकती है। ये देश 2008 की आर्थिक मंदी के प्रभावों से अभी तक पूरी तरह नहीं उबर सके हैं। एशिया प्रशांत क्षेत्र पर रिपोर्ट के अनुसार जापान, भारत, मलयेशिया, ताइवान और न्यूजीलैंड की सरकारों की वित्तीय हालत पतली हुई है। इन देशों की वित्तीय क्षमता 2008 के पहले के स्तर से भी नीचे आ गई है। इस एजेंसी ने जब अमरीका की क्रेडिट रेटिंग घटा दी थी तब दुनिया भर के शेयर बाजारों में भारी गिरावट दर्ज की गई थी। गॉधी जी पश्चिम के इस मॉडल को असफल माना करते थे। समझ नही आता प्रधानमंत्री विकास के लिए पाश्चात्य के असफल मॉडल को क्यों अपना रहें है ? विश्व के प्रमुख शिक्षण संस्थान कैम्ब्रिज, आक्सफोर्ड, बोस्टध्ध्,हैं वह सभी मंदी के शिकार है ? इन संस्थानो से शिक्षित छात्रों ने बड़े बड़े पैकेज लेकर बड़े बडे बैंको और कंपनियों को डूबा दिया। पूरा विश्व मंदी का शिकार हो गया। जब यह अर्थव्यवस्थाए डूब रहीं थी तब ये विशेषज्ञ क्या झक मार रहे थे ? पता नही हम लोग क्यों इन लोगों को अनावश्यक सम्मान देते हैं। ये लोग सिखाते है कि अगर आपके पास 50 रू है तो 500 रू का कर्ज लेकर ऐश से जीओ। भारतीय संस्कृति कहती है कि कुछ हिस्सा जोड़कर रखना चाहिए। प्रतिकूल समय में काम आयेगा। अब मंदी से लुटे पिटे देश भारत के लोगो के उसी जुड़े हिस्से को लूटने आ रहे है। टाई पहनकर लोगों को टोपी पहनाने वाले इन विशेषज्ञों से बेहतर कंपनी तो दाढी वाले बाबा ने चलाकर दिखा दी।