Wednesday, March 21, 2012

बाल दिवस.. मनाने का एक अंदाज यह भी..!!


14 नवम्बर को हम लोग बाल दिवस के रूप में मनाते  है। यह दिन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री प0 जवाहर लाल नेहरू के जन्म दिन के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। भारत के स्वाधीनता संग्राम में प0 नेहरू का योगदान उल्लेखनीय रहा था। देश की आजादी का प्रतीक रही कांग्रेस की जड़ों को सींचने में प0 नेहरू का भी योगदान था। जब व्यक्ति का वर्तमान अच्छा न हो और भविष्य में आशा की कोई किरण न हो तब वह अपने भूतकाल की उपलब्धियों को गिनाने लगता हैं। 14 नवंबर मनाने का एक पारंपरिक तरीका है कि हम नेहरू जी को याद करें । उनकी कुछ तारीफ करें। बच्चे गुलाब के फूल को चाचा नेहरू का प्रतीक बताते हुये उनकी देशभक्ति का गुणगान करें। फिर दोपहर 12 बजे तक अपने अपने घर जाये। फिर घर जाकर टीवी पर वही कुछ चुनिंदा फिल्मे देखें जो 15 अगस्त, 26 जनवरी, 14 नवंबर के लिए अनुबंधित सी लगती हैं। इस पूरी प्रक्रिया में सिर्फ भूतकाल का गुणगान होता है। मेरा मानना है कि 14 नवंबर हम सबके लिए आत्मचिंतन का दिवस है। यह वह दिन है जब हमें विचार करना चाहिए कि हम अपनी आने वाली पीढियों के लिए क्या छोडकर जायेंगें ? हमारे पूर्वजो ने जो त्याग किये उसने हमे आजाद बनाया किंतु जब तक हम उनकी गलतियों का ऑकलन नही करेंगें ? उनके द्वारा अधूरे छोड़े गये कार्यो को पूरा नही करेंगें। हम देश को आगे नही ले जा पायेंगें।
14 नवम्बर के दिन एक बात और समझना जरूरी है जब तक हम छोटे थे तब बाल दिवस को बड़े मन से मनाया करते थे। जैसे जैसे हम बड़े होते गये, नेहरू जी की नकारात्मक बातें भी हमारे संझान में आती चलीं गयी। 14 अगस्त 1947 की रात 12 बजे भारत आजाद नही हुआ था बल्कि सत्ता का स्थानान्तरण हुआ था।‘टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट’ पर हस्ताक्षर करने वाले महानुभाव थे प0 जवाहर लाल नेहरू। अंग्रेजों की तरफ से लार्ड माउंटबेटन ने हस्ताक्षर किये थे। लार्ड माउंटबेटन की जो सबसे बड़ी खासियत थी वह थी लेडी एडमिना का पति होना। लेडी एडमिना और प0 जवाहर लाल नेहरू की नजदीकियों पर काफी लिखा जा चुका है। उस पर चर्चा की आवश्यकता नही है। आज 14 नवम्बर के दिन हमें आतमचिंतन करना है कुछ ऐतिहासिक भूलों का। ऐसी भूलों का जो जाने अंजाने शहीदों का अपमान कर रहीं हैं। टांसफर आफ पावर एक खतरनाक संधि थी जिसे 1857 की क्रांति से पहले हुयी सभी 565 संधियों से भी ज्यादा खतरनाक माना जा सकता है।

टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट की वजह से ही भारत को दो हिस्सों में बॉटना पड़ा। भारत और पाकिस्तान को डोमेनियन स्टेट का दर्जा दिया गया। डोमेनियन शब्द का उदभव डोमिनेट शब्द से हुआ है जिसका अर्थ है किसी साम्राज्य के आधीन कार्य करना। कॉमनवेल्थ शब्द भी गुलामी और दासता का प्रतीक रहा है। इसी कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए आज की सरकार ने रूपया पानी की तरह बहा दिया। बड़े बड़े घोटाले हो गये। पहले कॉमनवेल्थ के नाम पर अंग्रेज भारत लूट ले गये, अब कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर भारतीय अंग्रेंजों ने देश को कच्चा चबा डाला। कॉमनवेल्थ गेम्स की अंर्तराष्टिय मान्यता बहुत ज्यादा नही होती। यदि भारत को स्वराज मिला होता तो हम कॉमनवेल्थ गेम्स को कराने को बाध्य नही होते किंतु उस समय तो टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट हुआ था। मतलब साफ है कि कॉमनवेल्थ गेम्स को कराना हमारी मजबूरी भी था। कॉमनवेल्थ उन 71 देषों का एक समूह है जो कभी न कभी महारानी का गुलाम रहा हो। महारानी को आज भी इन देशों में आने जाने का वीज़्ाा नही लेना पड़ता है। वह  भारत की नागरिक मानी जाती हैं। इसके विपरीत उनके भारतीय समकक्ष भारत के राष्टपति और प्रधानमंत्री को ब्रिटेन जाने के लिए वीज़ा की आवश्यकता पड़ती है। भारत के राष्टपति और प्रधानमंत्री को नियुक्ति के समय 21 तोपों की सलामी दी जाती है किंतु अगर ब्रिटेन की महारानी भारत आती हैं तो उन्हे भी 21 तोपों की सलामी देना हमारी मजबूरी है। वह आज भी भारत के अप्रत्यक्ष राष्टाघ्यक्ष का दर्जा प्राप्त किये हुये हैं। उन्हे आज भी हाईकमान माना जाता हैं। इसका उद्वारण है कि ब्रिटेन की एम्बेसी को आज भी ब्रिटिश हाईकमीशन कहा जाता है। अमेरिका, जर्मनी, रूस, चीन जैसी अपेक्षाकृत बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के भारत स्थित दूतावासों को हाईकमीशन नही कहा जाता। टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट का ही प्रसाद है कि हम लोग ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ या ब्रिटेन के राजकुमार चार्ल्स कह कर संबोधित नही करते बल्कि महारानी एलिजाबेथ और राजकुमार चार्ल्स कह कर संबोधित करते हैं।

अब इस टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट के कुछ अन्य पक्षों को भी देखते हैं। हमारे राष्टगीत वंदेमातरम को 1997 तक संसद में गाने पर पाबंदी थी। टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट की शर्तो के अनुसार अगले 50 सालों तक यह प्रतिबंधित था। 1997 में चंद्रशेखर के द्वारा यह मुद्दा संसद में उठाया गया। उसके बाद से वंदेमातरम का गायन प्रारम्भ हो सका। एक अन्य उद्वारण है। व्हीलर्स के नाम से हर रेलवे स्टेशन पर बुक स्टाल है। यह वह व्हीलर हैं जिसने कानपुर के पास हजारों का नरसंहार करवाया था। इसी प्रकार ऐसे अनेक न्यायाधीश हैं जिनके चित्र हमारे न्यायालयों को सुशोभित कर रहे हैं। कुछ नाम याद आ रहे हैं। जैसे जस्टिस डाबर जिन्होने लोकमान्य तिलक को 6 वर्ष के कारावास की सजा़ सुनायी थी। तिलक ने केसरी नामक पत्र में अंग्रेंजों के विरूद्व लेख लिखा था जिसमें उन्होने बंगााल के विस्फोट एवं वहॉ के लोगों का समर्थन किया था। इसी प्रकार महात्मा गॉधी 1923 तक बैरिस्टर मोहनदास करमचंद्र गॉधी के नाम से जाने जाते थें। अंग्रेजी साम्राज्य के विरूद्व उनके अभियान को नियंत्रित करने के लिए उनके वकालत करने को प्रतिबंधित कर दिया गया। उनका नाम बैरिस्टर सूची से हटा दिया गया। इस कार्य को अंजाम दिया था जज मेक्लोड एवं जस्टिस मुल्ला ने। अनजाने में ही सही आज भी जस्टिस डाबर, जज मेक्लोड एवं जस्टिस मुल्ला के चित्र मंुबई हाईकोर्ट को सुशोभित कर रहे है। ऐसे अनेको उद्वारण हैं जो गुलामी एवं दासता के प्रतीक रहें हैं और हम उन्हे आज भी टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट की विवशता की वजह से सम्मान देने को विवश हो रहे हैं।

इस संधि की एक ओर विवशता है। यदि भारतीय अदालत में कोई ऐसा मुकदमा आता है जिसके संदर्भ में संविधान या भारतीय कानून में प्रावधान नही है उसके लिए ब्रिटिश कानून का पालन करना होगा। आज देश में 34,735 कानून अपने उसी प्रारूप में चल रहे हैं जैसा अंग्रेज चाहते थे। सुभाष चंद्र बोस इस टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट की वजह से सरकार के गुनहगार रहेंगें । यदि वह जिं़दा या मुर्दा पकड़े जाते हैं तो उन्हे ज़िदा या मुर्दा अंग्रेजो के हवाले करना हमारी जिम्मेदारी होगी। सुभाष चंद्र बोस ने 1942 में आजाद हिंद फौज बनाने में जर्मनी और जापान की मदद ली थी। चूकि ये दोनो देश द्वितीय विश्वयुद्व में ब्रिटेन के खिलाफ थे इसलिए अंग्रेज बोस से ज्यादा खुन्नस खाते थे। टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट की वजह से बोस, बिस्मिल, अशफाक, आजाद आदि क्रांतिकारियों को 1947 के बाद भी पाठय पुस्तकों में आतंकवादियों का दर्जा दिया जाता रहा था। सबसे बड़ी चिंता की बात तो यह है कि टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट भारत को भारत कहने से रोकता है। दस्तावेजों में भारत का नाम इंडिया रखना हमारा बड़प्पन नही हमारी मजबूरी है। भारत ने गुरूकुल पद्वति से सम्पूर्ण विश्व पर राज किया किंतु टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट ने हमें मैकाले की त्रुटिपूर्ण शिक्षा व्यवस्था अपनाने को विवश कर रखा है। कुछ ऐसी थी टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट की विवशता, जिस पर प0 नेहरू ने हस्ताक्षर किये थे। गॉधी जी टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट के पक्ष में नही थे। वह 14 अग0 1947 की रात दिल्ली नही आये थे। उनका दिल्ली न आना उनका अहिंसात्मक विरोध था। उनका मानना था कि ...भारत को आजादी नही मिल रही है सिर्फ टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट हो रहा है। गॉधी जी उस समय नोआखली में थे और उन्होने वहीं से एक प्रेस नोट भेजा था कि मुझे खेद है कि मैं भारत को तथाकथित आजादी नही दिलवा पाया। कुछ लालची लोगों की सत्तालोलुपता ने स्वराज के स्थान पर टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट को स्वीकार कर लिया है।......यघपि प0 नेहरू ने देश के स्वाधीनता संग्राम में अमूल्य योगदान दिया। देश की विदेशनीति औा अपनी विद्वता के द्वारा सम्पूर्ण विश्व में अपना लोहा मनवाया। चाचा नेहरू के रूप में बच्चों को अपार प्रेम दिया। किंतु यह उनकी व्यक्तिगत उपलब्धियॉ हों सकती है। देश के संदर्भ में अपनी सत्तालोलुपता के चलते, टांसफर आफ पावर एंग्रीमेंट का जो दंश उन्होने देश को दिया है उसे हम आज भी भुगत रहे हैं। वास्तव में स्वयं से ईमानदारी आवश्यक है, सिर्फ ईमानदारी का आवरण नही। उच्च एवं अति उच्च शिक्षित होना व्यक्ति का चारित्रिक विश्लेषण नही करता। व्यक्ति की वास्तविक सफलता एवं व्यक्तित्व का मापदंड उसके नैतिक मूल्य होने चाहिए: शिक्षा, पद या धन का होना नही....? यह तो सिर्फ स्वार्थहित के लिए मापदंड बना दिये गये हैं। उच्च शिक्षित, उच्च पद पर प्रतिष्ठित एवं धनवान भी संवेदनशून्य हो सकता है एवं तीनो से रहित व्यक्ति भी संवेदनशील हो सकता है। वास्तव में संवेदनशीलता महत्वपूर्ण है, अन्य तत्व नही। राम प्रसाद बिस्मिल की ये पंक्तियॉ तात्कालीन भारत की दशा का वर्णन करती हैं ।
                                  इलाही खैर   वो हरदम    नयी  बेदाद करते है
                                        हम तोहमत लगाते हैं जो हम   फरियाद करते है
                                 सितम ऐसा  नही देखा    ज़फा  ऐसी नही देखी
                                        वो चुप रहने को कहते हैं जो हम फरियाद करते है


1 comment:

  1. Bahut sahi likha gaya, Nehru satta ka itna laalchi tha ki usne PM banne ke liye 2lac se uper logo ke khoon se tilak karke Pradhanmantri bana "jago bharat jago"

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